स्वप्न मेरे

शनिवार, 16 अगस्त 2025

जन्माष्टमी …

 युगपुरुष योगिराज द्वारकाधीश श्री कृष्ण जन्माष्टमी की सभी को हार्दिक बधाई और ढेरों शुभकामनाएँ … 🌹🌹

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शनिवार, 9 अगस्त 2025

जिसे समझ है उसे कैसे हिदायत भेजूँ ...

किसे ज़मीन ये दीवार किसे छत भेजूँ.
किसे मैं सिर्फ़ ये रेशम सी मुहब्बत भेजूँ.

यही है शर्त मुझे साथ ही रखना होगा,
तो कौन कौन है मैं जिसको ये दौलत भेजूँ.

चुकाना चाहते है क़र्ज़ के जैसे वे इसे,
किसी को कैसे में एहसान की लागत भेजूँ.

सहेजने के लिए कौन मुनासिब है बता,
में किसको रीति-रिवाजों की रिवायत भेजूँ.

ख़ुदा तो प्रेम को मैंने ही बनाया पहले,
में किसका दोष निकालूँ किसे लानत भेजूँ.

मेरा तो दिल भी मेरे पास नहीं रहता है,
में किसके पास कहो इसकी शिकायत भेजूँ.

वो ना-समझ भी जो लगते तो बता देता सब,
जिसे समझ है उसे कैसे हिदायत भेजूँ.

शनिवार, 2 अगस्त 2025

किसी के पास सदा वक़्त रुका होता है ...

मशाल बन के अंधेरे में खड़ा होता है. 
लिबास धूप का जिस-जिस को अता होता है.

हज़ार बार उठेगा जो लगी हो ठोकर,
उठा न फिर वो नज़र से जो गिरा होता है.

उसी जगह पे महकती है मुहब्बत पल-पल,
जहाँ-जहाँ भी तेरा ज़िक्र हुआ होता है.

न जाने कब ये बखेड़ा खड़ा करे कोई,
शरीफ़ दिल में जो शैतान छुपा होता है.

तुम्हारे साथ का मतलब ये समझ पाया हूँ,
हसीन मोड़ भी मंज़िल का पता होता है.

उसे यक़ीन है गंगा में धुलेंगे सारे,
गुनाह कर के वो हर बार गया होता है.

किसी को मिलने की ख़ुद से भी नहीं है फ़ुरसत,
किसी के पास सदा वक़्त रुका होता है.

शनिवार, 26 जुलाई 2025

लोगों के बीच बात ये नज़र-नज़र गई ...

उनके भी तेरे मेरे और सबके घर गई.
उनकी तलाश में नज़र किधर-किधर गई.

चश्मा लगा के लोग काम पर चले गए,
सुस्ती को फिर जगह मिली जिधर-पसर गई.

घर लौटने की आस में कुछ लोग खप गए,
इक भीड़ गाँव-गाँव से शहर-शहर गई.

ख़ामोश तीरगी का शोर गूँजता रहा,
फिर ख़्वाब-ख़्वाब रात ये पहर-पहर गई.

जागा जो इश्क़, आरज़ू के पंख लग गए,
तितली बुझाने प्यास फिर शजर-शजर गई.

बादल के साथ-साथ रुख़ हवा का देख कर,
उम्मीद भी किसान की इधर-उधर गई.

लब सिल दिए सभी के पर सभी को थी ख़बर,
लोगों के बीच बात ये नज़र-नज़र गई.

शनिवार, 19 जुलाई 2025

सभी को बोलता हूँ मीत न पाया अब तक ...

उदास लम्हे सा व्यतीत न पाया अब तक.
में शब के साथ-साथ बीत न पाया अब तक.

दुआ जो जीतने की करती है अक्सर मेरी,
में उससे जीत कर भी जीत न पाया अब तक.

किसी के प्रेम की नमी ने भिगोया इतना,
नदी सा सूख के भी रीत न पाया अब तक.

हर एक मोड़ पर मिले हैं अनेकों रहबर,
तुम्हारी सोच के प्रतीत न पाया अब तक.

प्रवाह, सोच, लफ़्ज़, का है ख़ज़ाना भर के,
बहर में फिर भी एक गीत न पाया अब तक.

रुका हुआ हूँ, वक़्त बन्द घड़ी का जैसे,
में अपनी सोच से ही जीत न पाया अब तक.

किवाड़ ख़ुद ही दिल के बन्द किए हैं अकसर,
सभी को बोलता हूँ मीत न पाया अब तक.