स्वप्न मेरे

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2025

अर्थ गीता के जग में अटल हो गए …

पाँव कान्हा के छू कर विहल हो गए
माता यमुना के तेवर प्रबल हो गए

प्रभु सुदामा से मिल कर विकल हो गए
दो नयन रुक्मणी के सजल हो गए

कालिया पूतना सृष्टि लीला सकल
मोर-पंखी निरे कोतु-हल हो गए

तान छेड़ी मुरलिया की बेसुध किया
मंजरी ग्वाल-बाले अचल हो गए

सौ की मर्यादा टूटी सुदर्शन चला
पल वो शिशुपाल के काल-पल हो गए

रूह प्रारब्ध ही बस बचा किंतु तन
अग्नि, पृथ्वी, गगन, वायु, जल हो गए

कर के नारायणी कौरवों की तरफ़
कृष्ण ख़ुद पाण्डवों की बगल हो गए

इन्द्र के कोप से त्राण ब्रज का किया
तुंग गिरिराज भी तीर्थस्थल हो गए

सृष्टि मैं इष्ट मैं अंश सब में मेरा
श्याम वर्णी ये कह कर विरल हो गए

मथुरा-गोकुल से मथुरा से फिर द्वारका
युग के रणछोड़ योगी कुशल हो गए

राधे-राधे जपा हो गई तब कृपा
कुंज गलियन में जीवन सफल हो गए

द्वारिकाधीश जब से हुए सारथी
ख़ुद-ब-ख़ुद प्रश्न सम्पूर्ण हल हो गए

श्याम तेरी लगन और मीरा मगन
ख़ुद हला-हल तरल गंगा-जल हो गए

कर्म पथ, योग पथ, भक्ति पथ, धर्म क्या
अर्थ गीता के जग में अटल हो गए

शनिवार, 6 दिसंबर 2025

तुम साथ रहोगे तो सफ़र ठीक रहेगा ...

ऐसे ही रहेगा वो मगर ठीक रहेगा.
गुस्से को झटक दोगे तो सर ठीक रहेगा.

देना है जो अन्जाम किसी बात को, अब दो,
कुछ देर दवाओं का असर ठीक रहेगा.

छत फूस की होगी तो उड़ा लेंगी हवाएँ,
इसको जो बदल दोगे तो घर ठीक रहेगा.

क्योंकि था पिता जी को मिला, आपका हक हो,
बेहतर तो है तन्हा ये शिखर ठीक रहेगा.

अब ये न करो वो न करो ठीक नहीं है,
क्या मन में किसी बात का डर ठीक रहेगा.

चाहत है के आँगन में चहकते हों परिन्दे,
फूलों से लदा एक शजर ठीक रहेगा.

मुश्किल ही सही वक़्त गुज़र जाएगा यूँ तो,
तुम साथ रहोगे तो सफ़र ठीक रहेगा.

शनिवार, 8 नवंबर 2025

रोक ले जो यादों को ऐसा क्या शटर होगा ...

रात के अंधेरे का ख़त्म जब सफ़र होगा.
रौशनी की बाहों में, फिर से ये शहर होगा.

वक्त तो मुसाफ़िर है किसके पास ठहरा है,
आज है ये मुट्ठी में कल ये मुख़्तसर होगा.

मस्तियों में रहता है, हँस के दर्द सहता है,
तितलियाँ पकड़ता है, प्यार का असर होगा.

फ़र्श घास का होगा, बादलों की छत होगी,
ये हवा का घेरा ही बे-घरों का घर होगा.

पलकों की हवेली में ख़्वाब का खटोला है,
ख़ुश्बुओं के आँगन में, इश्क़ का शजर होगा.

छुट्टियों पे बादल हैं मस्त सब परिंदे हैं,
सोचता हूँ फिर कैसे, चाँद पे डिनर होगा.

नींद की खुमारी में, लब जो थरथराए हैं,
हुस्न को ख़बर है सब, इश्क़ बे-ख़बर होगा.

खिड़कियों को ढक लो तो धूप रुक भी जाती है,
रोक ले जो यादों को ऐसा क्या शटर होगा.

(तरही ग़ज़ल)

शनिवार, 1 नवंबर 2025

तक़दीर नई लिख पाऊँ मैं, ऐ काश वो पेंसिल आ जाए ...

कश्ती है समुंदर में कब से, इक बार तो साहिल आ जाए.
इस बार करो कुछ तुम दिलबर, अब लौट के घर दिल आ जाए.

आँधी का इरादा लगता है, बादल भी गरजते हैं नभ पर,
मंज़िल पे कदम अब रखना है, आनी है जो मुश्किल आ जाए.

जाहिल हो के काबिल या फ़ाज़िल, कामिल हो के हो चाहे बिस्मिल,
चौबन्द रहे नाकेबंदी, इस बार जो क़ातिल आ जाए.

अभ्यास, मनन, चिंतन, मेहनत, हो जाए है पल में बे-मानी,
दो चार कदम चल कर झट से, कदमों में जो मंज़िल आ जाए.

अलमस्त हसीना दक्षिण की , हंस-हंस के मिला करती है जो,
उल्फ़त का तक़ाज़ा कर दूँगा, भाषा जो ये तामिल आ जाए.

चंदा की सुनहरी टैरस तक, कुछ वक़्त लगेगा आने में,
बादल हैं गगन पर कजरारे, बरसात न झिल-मिल आ जाए.

मुश्किल से जो मिलता है मुझको, हाथों से फ़िसल जाता है सब,
तक़दीर नई लिख पाऊँ मैं, ऐ काश वो पेंसिल आ जाए.
(तरही ग़ज़ल)

शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

फिर सियासत को नया गठ-जोड़ दो ...

घिस गए जो आईने वो तोड़ दो.
बुझ गए जो दीप मिल के फोड़ दो.

धूप ने आते ही बादल से कहा,
तुम तो बीडू रास्ता ये छोड़ दो.

तंग होते जा रहे हैं शहर सब,
गाँव की पगडंडियों को मोड़ दो.

दर्द हो महसूस बोले ही बिना,
दिल से दिल के तार ऐसे जोड़ दो.

जोड़ने की बात फिर से कर सके,
फिर सियासत को नया गठ-जोड़ दो.