शहर दरिया हो या हो सहरा पहाड़
साथ दो तुम उम्र भर अच्छा लगेगा
थक चुका हूँ जिन्दगी की धूप में
छावं में तेरी मगर अच्छा लगेगा
सर्दियों का वक़्त और कुल्लू का मौसम
हो गयी है दोपहर अच्छा लगेगा
रेत का दरिया और हम तुम साथ हैं
ख़त्म न हो ये सफर अच्छा लगेगा
चाँद में धब्बे सहे नही जाते
आप जेसे भी हो पर अच्छा लगेगा
दिल ही रखने को सही पर बोल दो
याद आया दिगम्बर अच्छा लगेगा
रात होने को है और तन्हा हूँ में
लौट आओ मेरे घर अच्छा लगेगा
रेत का दरिया और हम तुम साथ हैं
जवाब देंहटाएंख़त्म न हो ये सफर अच्छा लगेगा
वाह ..बहुत खूबसूरत गज़ल
bahut behatrin gajal.dil ko choo gai.badhaai aapko.
जवाब देंहटाएंplease visit my blog.thanks.
बेहतरीन गज़ल लिखी है सर!
जवाब देंहटाएंसादर
आपकी पोस्ट की हलचल आज (30/10/2011को) यहाँ भी है
जवाब देंहटाएंअच्छी ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंसादर...
रात होने को है और तन्हा हूँ में
जवाब देंहटाएंलौट आओ मेरे घर अच्छा लगेगा
बेहतरीन गज़ल,हर शेर लाजवाब....
छोड़कर चुप्पी,उड़ो तितली सी तुम
है अभी कमसिन उमर अच्छा लगेगा.
तट समुंदर आओ थोड़ा टहल आयें
पाँव को चूमें लहर अच्छा लगेगा.
यूँ किसी भी बात पर रूठो भी तुम
मान जाओ रूठकर अच्छा लगेगा.
ना हँसो तो मुस्कुरा भी दो जरा
एक डिम्पल गाल पर अच्छा लगेगा.
बहुत खूब सर..
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा...
सादर.