खो गयी है आज क्यों सूरज की धूप
लुट गए हैं रंग सारी कायनात के
जुगनुओं से दोस्ती अब हो गयी अपनी
साथ मुझ को ले चलो ऐ राही रात के
तू छावं भी है धूप भी बरसात भी
रंग हैं कितने तुम्हारी शख्सियात के
छत तेरी आँगन मेरा, रोटी तेरी चूल्हा मेरा
सिलसिले खो गए वो मुलाक़ात के
मेरी तस्वीर मैं क्यों ज़िन्दगी के रंग भरे
झूठे फ़साने बन गए छोटी सी बात के
काँटे भी चुभे फूल का मज़ा भि लिया
दर्द लिए बैठे थे हम तेरी याद के
कुछ नए तारे खिले हैं आसमान पर
जी उठे लम्हे नए ज़ज्बात के
रास्तों ने रख लिया उनका हिसाब
जुल्म मैं सहता रहा ता-उम्र आप के
बाद-ऐ-मुद्दत फूल खिले हैं यहाँ
वो हिन्दू मुसलमान हैं या और ज़ात के
इक दिन मैं तुझको आईना दिखला दूँगा
तोड़ कर दीवारों दर इस हवालात के
लहू तो बस लाल रंग का हि गिरेगा
पत्थर संभालो दोस्तों तुम अपने हाथ के
है सोचने पर भी यहाँ पहरा लगा हुआ
पंछी उड़ाते रह गया मैं ख़यालात के
फ़िर नए इक हादसे का इंतज़ार
पन्ने पलटते रह गया अख़बार के
भाई,
जवाब देंहटाएंजारी रखें.
निरन्तरता स्वयं में शोध है.
आपका भावबोध अच्छा.
शिल्प धीरे-धीरे हो ही जायेगा.
साधुवाद एवं शुभकामनाएं.
bahut khoob, likhate rahein...
जवाब देंहटाएंइससे पहले वाली आपकी गज़ल पढ़ी
जवाब देंहटाएंवह गज़ल नहीं है
पर थोड़े से ध्यान से उसे गज़ल बनाया जा सकता है
आप अपनी पंक्तियां और मेरी पंक्तियां समक्ष रख कर स्वयं जांचे
आपको अच्छी लगे तो ठीक वरना मुझे क्षमा करें
नोट करें
आ लौटें बचपन में
क्या रक्खा यौवन में
खेल है दो सांसों का
पांच तत्व इस तन में
लोरी कंचे अर लट्टू
बचपन धड़के मन में
रात का आंचल उतरा
धीरे से आंगन में
घड़ी की टिकटिक जैसी
धड़कन है धड़कन में
रुत बरखा की आई
हम प्यासे सावन में
चुपके-चुपके रोये
जख्म रिसे जब मन में
थे सारे संगी-साथी
कौन बसा जीवन में
तेरा-मेरा जीवन
है सांसों के बंधन में
मौत झटक कर आया
वो तेरे आंगन में
सपने तुम्हें खलेंगें
मत खेलो मधुबन में
ये अंतिम सफर 'दिगम्बर'
है मिट्टी या चंदन में
बंधुवर
शब्द आपके हैं, प्रयास आपका है.
मैंने सिर्फ रास्ते की तरफ इशारा भर किया है
इस गज़ल में यदि छूट होती तो बहुत बेहतर शेर निकल सकते थे.
आप विचार करें.
शेष शुभ.
अन्यथा न लें.
आपके उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी.
इससे पहले वाली आपकी गज़ल पढ़ी
जवाब देंहटाएंवह गज़ल नहीं है
पर थोड़े से ध्यान से उसे गज़ल बनाया जा सकता है
आप अपनी पंक्तियां और मेरी पंक्तियां समक्ष रख कर स्वयं जांचे
आपको अच्छी लगे तो ठीक वरना मुझे क्षमा करें
नोट करें
आ लौटें बचपन में
क्या रक्खा यौवन में
खेल है दो सांसों का
पांच तत्व इस तन में
लोरी कंचे अर लट्टू
बचपन धड़के मन में
रात का आंचल उतरा
धीरे से आंगन में
घड़ी की टिकटिक जैसी
धड़कन है धड़कन में
रुत बरखा की आई
हम प्यासे सावन में
चुपके-चुपके रोये
जख्म रिसे जब मन में
थे सारे संगी-साथी
कौन बसा जीवन में
तेरा-मेरा जीवन
है सांसों के बंधन में
मौत झटक कर आया
वो तेरे आंगन में
सपने तुम्हें खलेंगें
मत खेलो मधुबन में
ये अंतिम सफर दिगम्बर
है मिट्टी या चंदन में
बंधुवर
शब्द आपके हैं प्रयास आपका है
मैंने सिर्फ रास्ते की तरफ इशारा भर किया है
इस गज़ल में यदि छूट होती तो बहुत बेहतर शेर निकल सकते थे
आप विचार करें
शेष शुभ
अन्यथा न लें
आपके उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी
दिगंबर जी बहुत सरल और भावपूर्ण ग़ज़ल आनंदाप्रदायानी बहुत बधिय्या आपके मेरे ब्लॉग पर पधारने हेतु बहुत धन्यबाद
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढिया रचना लिखी है।बधाई स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंक दिन मैं तुझको आईना दिखला दूँगा
तोड़ कर दीवारों दर इस हवालात के
लहू तो बस लाल रंग का हि गिरेगा
पत्थर संभालो दोस्तों तुम अपने हाथ के
है सोचने पर भी यहाँ पहरा लगा हुआ
पंछी उड़ाते रह गया मैं ख़यालात के
फ़िर नए इक हादसे का इंतज़ार
पन्ने पलटते रह गया अख़बार के
योगेन्द्र जी
जवाब देंहटाएंआप का मार्गदर्शन मिलता रहेगा
सुधार तो स्वयं ही होता रहेगा
आप भी हरियाणा से और मैं भी हरियाणा से
(मूल रूप से मैं फरीदाबाद का निवासी हूँ)
आप का अधिकार तो सहज ही बनता है
आगे भी स्नेह-वर्षा करते रहें