गुरुदेव पंकज जी के आशीर्वाद से खिली ग़ज़ल आपकी नज़र है .......... आशा है आपको पसंद आएगी .....
नेह के संबंध जब बंधन हुए
मन के उपवन झूम के मधुबन हुए
लक्ष्य ही रहता है दृष्टि में जहाँ
वक्त के हाथों वही कुंदन हुए
प्रेम की भाषा से जो अंजान हैं
जिंदगी में वो सदा निर्धन हुए
सत्य बोलो सत्य की भाषा सुनो
तब समझना आज तुम दर्पण हुए
किसके हाथों देश की पतवार है
गूंगे बहरे न्याय के आसन हुए
हैं मलाई खा रहे खादी पहन
असल के नेता मगर खुरचन हुए
रविवार, 27 दिसंबर 2009
रविवार, 20 दिसंबर 2009
जितनी चादर पाँव पसारो
अपना जीवन आप संवारो
जितनी चादर पाँव पसारो
हार गये तो कल जीतोगे
मन से अपने तुम न हारो
आशा के चप्पू को थामो
दरिया में फिर नाव उतारो
काँटों को हंस कर स्वीकारो
दूजे का न ताज निहारो
स्वर्ग बनाना है जो घर को
अपना आँगन आप बुहारो
जितनी चादर पाँव पसारो
हार गये तो कल जीतोगे
मन से अपने तुम न हारो
आशा के चप्पू को थामो
दरिया में फिर नाव उतारो
काँटों को हंस कर स्वीकारो
दूजे का न ताज निहारो
स्वर्ग बनाना है जो घर को
अपना आँगन आप बुहारो
शनिवार, 12 दिसंबर 2009
छोड़ कर भविष्य को इतिहास पकड़ा है
बासी रोटी प्याज़ उसके पास पकड़ा है
सूना सूना दिल मगर उदास पकड़ा है
जेब में थे क़हक़हे, किस्से, कहानी
होठों पर महका हुवा परिहास पकड़ा है
कौन सी धारा लगेगी तुम बताओ
टूटी लाठी, फटा हुवा लिबास पकड़ा है
बस किताबों में ही मिलती हैं मिसालें
बोलो किसने आज़ तक आकाश पकड़ा है
सभ्यता कैसे वो आगे बढ़ सकेगी
छोड़ कर भविष्य को इतिहास पकड़ा है
पार है वो दम है जिसकी बाज़ुओं में
वो नही जिसने फकत विश्वास पकड़ा है
सूना सूना दिल मगर उदास पकड़ा है
जेब में थे क़हक़हे, किस्से, कहानी
होठों पर महका हुवा परिहास पकड़ा है
कौन सी धारा लगेगी तुम बताओ
टूटी लाठी, फटा हुवा लिबास पकड़ा है
बस किताबों में ही मिलती हैं मिसालें
बोलो किसने आज़ तक आकाश पकड़ा है
सभ्यता कैसे वो आगे बढ़ सकेगी
छोड़ कर भविष्य को इतिहास पकड़ा है
पार है वो दम है जिसकी बाज़ुओं में
वो नही जिसने फकत विश्वास पकड़ा है
रविवार, 6 दिसंबर 2009
हार में ही जीत है तो हार क्यों नहीं
आस्था विशवास का विस्तार क्यों नहीं
आदमी को आदमी से प्यार क्यों नहीं
भ्रमर भी है, गीत भी है, रीत भी
पुष्प में फिर गंध और श्रृंगार क्यों नहीं
पा लिया दुनिया को मैंने हार कर दिल
हार में ही जीत है तो हार क्यों नहीं
दिल के बदले दिल मिले, आंसू नहीं
इस तरह से प्यार का व्यापार क्यों नहीं
सत्य ही कहता है आईना हमेशा
आईने को खुद पर अहंकार क्यों नहीं
आदमी को आदमी से प्यार क्यों नहीं
भ्रमर भी है, गीत भी है, रीत भी
पुष्प में फिर गंध और श्रृंगार क्यों नहीं
पा लिया दुनिया को मैंने हार कर दिल
हार में ही जीत है तो हार क्यों नहीं
दिल के बदले दिल मिले, आंसू नहीं
इस तरह से प्यार का व्यापार क्यों नहीं
सत्य ही कहता है आईना हमेशा
आईने को खुद पर अहंकार क्यों नहीं
सोमवार, 30 नवंबर 2009
न्याय की आशा यहाँ परिहास है
इस व्यवस्था पर नहीं विशवास है
न्याय की आशा यहाँ परिहास है
कल जहां दंगा हुवा था नगर में
गिद्ध चील पुलिस का निवास है
बस उसी का नाम है इस जगत में
अर्थ शक्ति का जहां विकास है
समझ में आया हुई बेटी विदा जब
घर का आँगन क्यों हुवा उदास है
आपके होठों पर इक निश्छल हंसी हो
बस यही इस ग़ज़ल का प्रयास है
न्याय की आशा यहाँ परिहास है
कल जहां दंगा हुवा था नगर में
गिद्ध चील पुलिस का निवास है
बस उसी का नाम है इस जगत में
अर्थ शक्ति का जहां विकास है
समझ में आया हुई बेटी विदा जब
घर का आँगन क्यों हुवा उदास है
आपके होठों पर इक निश्छल हंसी हो
बस यही इस ग़ज़ल का प्रयास है
मंगलवार, 24 नवंबर 2009
आस्था आदर्श पर ...
जगमगाती रौशनी और शहर के आकर्ष पर
बन गए कितने फ़साने जुस्तजू संघर्ष पर
छू लिया क्यों आसमान सड़क पर रहते हुवे
उठ रही हैं उंगलियाँ उस शख्स के उत्कर्ष पर
मर गया बेनाम ही जो उम्र भर जीता रहा
सत्य निष्ठां न्याय नियम आस्था आदर्श पर
बन गयीं हवेलियाँ टूटी थि कल बस्ती जहां
खून के धब्बे नज़र आयेंगे उनके फर्श पर
गर्दनें टूटी हुयी उन पंछियों की मिल गयीं
पंख को तोले बिना जो उड़ रहे थे अर्श पर
गावं क्या खाली हुवे, ग्रहण सा लगने लगा
बाजरा, मक्की, गेहूं की बालियों के हर्ष पर
बन गए कितने फ़साने जुस्तजू संघर्ष पर
छू लिया क्यों आसमान सड़क पर रहते हुवे
उठ रही हैं उंगलियाँ उस शख्स के उत्कर्ष पर
मर गया बेनाम ही जो उम्र भर जीता रहा
सत्य निष्ठां न्याय नियम आस्था आदर्श पर
बन गयीं हवेलियाँ टूटी थि कल बस्ती जहां
खून के धब्बे नज़र आयेंगे उनके फर्श पर
गर्दनें टूटी हुयी उन पंछियों की मिल गयीं
पंख को तोले बिना जो उड़ रहे थे अर्श पर
गावं क्या खाली हुवे, ग्रहण सा लगने लगा
बाजरा, मक्की, गेहूं की बालियों के हर्ष पर
सोमवार, 16 नवंबर 2009
देश का बदला हुवा वातावरण है
एक बार फिर से हिन्दी में ग़ज़ल कहने का प्रयास है ....गुरुदेव पंकज जी के आशीर्वाद ने इसको संवारा है .... आपके स्नेह, सुझाव और आशीर्वाद की आकांक्षा है .......
आज प्रतिदिन सत्य का होता हरण है
देश का बदला हुवा वातावरण है
काश मन से भी वो होते साफ़ सुथरे
जिनके तन पर साफ़ सुथरा आवरण है
बस गयी बारूद की खुशबू हवा में
इस तरह से सड़ चुका पर्यावरण है
भूख से वो उम्र भर लड़ता रहेगा
जिसने ढूंढा ताल छंद और व्याकरण है
हैं मेरे भी मित्र क्या तुमको बताऊँ
सांप से ज्यादा विषैला आचरण है
प्रेम के दो बोल हैं सपनों की बातें
विष में डूबा आज हर अन्तःकरण है
आज प्रतिदिन सत्य का होता हरण है
देश का बदला हुवा वातावरण है
काश मन से भी वो होते साफ़ सुथरे
जिनके तन पर साफ़ सुथरा आवरण है
बस गयी बारूद की खुशबू हवा में
इस तरह से सड़ चुका पर्यावरण है
भूख से वो उम्र भर लड़ता रहेगा
जिसने ढूंढा ताल छंद और व्याकरण है
हैं मेरे भी मित्र क्या तुमको बताऊँ
सांप से ज्यादा विषैला आचरण है
प्रेम के दो बोल हैं सपनों की बातें
विष में डूबा आज हर अन्तःकरण है
मंगलवार, 10 नवंबर 2009
बिखरे शब्द ......
१)
तुम तक पहुँचने से पहले
कुछ अन्जाने शब्द
बिखर गये थे तुम्हारे रास्ते
अनदेखा कर शब्दों की चाहत
मसल दिए तुमने
उनके अर्थ, उनकी अभिव्यक्ति
उनकी चाहत, मौन अनुरक्ति
शब्दों का उमड़ता सैलाब
अब समुन्दर हो गया है
बिखरने को बेताब शब्द
अश्वथामा हो गए हैं
भटक रहे हैं तेरी तलाश में
दर बदर
सुना है द्वापर तो चला गया
कहीं कलयुग भी न गुज़र जाए .......
२)
कुरेद रहा हूँ
दिल में दबी
मुहब्बत की राख
सुना है
राख के ढेर में
चिंगारी दबी रहती है .......
तुम तक पहुँचने से पहले
कुछ अन्जाने शब्द
बिखर गये थे तुम्हारे रास्ते
अनदेखा कर शब्दों की चाहत
मसल दिए तुमने
उनके अर्थ, उनकी अभिव्यक्ति
उनकी चाहत, मौन अनुरक्ति
शब्दों का उमड़ता सैलाब
अब समुन्दर हो गया है
बिखरने को बेताब शब्द
अश्वथामा हो गए हैं
भटक रहे हैं तेरी तलाश में
दर बदर
सुना है द्वापर तो चला गया
कहीं कलयुग भी न गुज़र जाए .......
२)
कुरेद रहा हूँ
दिल में दबी
मुहब्बत की राख
सुना है
राख के ढेर में
चिंगारी दबी रहती है .......
बुधवार, 4 नवंबर 2009
प्रेम का अनुबंध है विनिमय तो होना चाहिए
हिंदी में एक ग़ज़ल कहने का प्रयास है ...... मीटर की ग़लतियों को गुरुदेव पंकज सुबीर जी ने ठीक कर दिया है ........ और एक बात आज पहली बार शाबासी भी मिली है गुरुदेव से इस ग़ज़ल की बहर पर ......
साथ है जो आपका सुखमय तो होना चाहिए
प्रेम का अनुबंध है विनिमय तो होना चाहिए
मैं कोई विचलित नहीं हूँ आपके संपर्क से
उम्र भर के साथ का निश्चय तो होना चाहिए
है भरत सक्षम चलाने के लिये शासन, मगर
राम के वनवास का निर्णय तो होना चाहिए
है ये नाटक जिंदगी का मंच पर संसार के
पात्र मिलते हैं मगर अभिनय तो होना चाहिए
जोश बस काफी नहीं है लक्ष्य पाने के लिए
राह से कुछ आपका परिचय तो होना चाहिये
साथ है जो आपका सुखमय तो होना चाहिए
प्रेम का अनुबंध है विनिमय तो होना चाहिए
मैं कोई विचलित नहीं हूँ आपके संपर्क से
उम्र भर के साथ का निश्चय तो होना चाहिए
है भरत सक्षम चलाने के लिये शासन, मगर
राम के वनवास का निर्णय तो होना चाहिए
है ये नाटक जिंदगी का मंच पर संसार के
पात्र मिलते हैं मगर अभिनय तो होना चाहिए
जोश बस काफी नहीं है लक्ष्य पाने के लिए
राह से कुछ आपका परिचय तो होना चाहिये
मंगलवार, 27 अक्टूबर 2009
प्रेम की ये कैसी इब्तदा
कभी कभी बातों ही बातों में मन के आस पास उमड़ते घुमड़ते अनजाने कुछ शब्द, कोई कल्पना या रचना का रूप ले लेते हैं ..... प्रस्तुत है ऐसी ही एक रचना जो अनजाने ही उग आयी मन के आँगन में ..........
खूब है मासूम सी अदा
बोलती आँखें यदा कदा
होठ से तेरे जो निकले
गीत मैं गाता रहूँ सदा
स्पर्श से महका जो तेरे
खिल रहा वो फूल सर्वदा
ग्वाल में राधा तू मेरी
बांसुरी बजती यदा यदा
हाथ में सरसों खिली है
प्रेम की ये कैसी इब्तदा
मेघ धरती अगन वायु
कायनात तेरी सम्पदा
हूँ पथिक विश्राम कैसा
आपसे लेता हूँ मैं विदा
खूब है मासूम सी अदा
बोलती आँखें यदा कदा
होठ से तेरे जो निकले
गीत मैं गाता रहूँ सदा
स्पर्श से महका जो तेरे
खिल रहा वो फूल सर्वदा
ग्वाल में राधा तू मेरी
बांसुरी बजती यदा यदा
हाथ में सरसों खिली है
प्रेम की ये कैसी इब्तदा
मेघ धरती अगन वायु
कायनात तेरी सम्पदा
हूँ पथिक विश्राम कैसा
आपसे लेता हूँ मैं विदा
बुधवार, 21 अक्टूबर 2009
तुम तक पहुँचने से पहले
१)
तुम तक पहुँचने से पहले
लड़खड़ा कर गिर गए कुछ शब्द
घायल शब्दों की झिर्री से
बिखर गयी चाहत
बह गए एहसास
कुछ अधूरे स्वप्न
मिलन की प्यास
उफ़ ......... इन घायल शब्दों को
बैसाखी भी तो नहीं मिलती
२)
तुम तक पहुँचने से पहले
लड़खड़ा कर गिर गए कुछ शब्द
वो देखो ...........
रेत के पीली समुन्दर में
शब्दों का जंगल उग आया है
शोर से महकते जंगल को
अभिव्यक्त हो जाने की प्यास है
तू कभी तो इस रास्ते से गुजरेगा
बस तेरी ही उसको तलाश है
सुना है गुज़रे मुसाफिर
लौट कर ज़रूर आते हैं
तुम तक पहुँचने से पहले
लड़खड़ा कर गिर गए कुछ शब्द
घायल शब्दों की झिर्री से
बिखर गयी चाहत
बह गए एहसास
कुछ अधूरे स्वप्न
मिलन की प्यास
उफ़ ......... इन घायल शब्दों को
बैसाखी भी तो नहीं मिलती
२)
तुम तक पहुँचने से पहले
लड़खड़ा कर गिर गए कुछ शब्द
वो देखो ...........
रेत के पीली समुन्दर में
शब्दों का जंगल उग आया है
शोर से महकते जंगल को
अभिव्यक्त हो जाने की प्यास है
तू कभी तो इस रास्ते से गुजरेगा
बस तेरी ही उसको तलाश है
सुना है गुज़रे मुसाफिर
लौट कर ज़रूर आते हैं
रविवार, 18 अक्टूबर 2009
शब्दों के मायने .....
शब्दों का सिलसिला आगे बढाता हूँ .............शब्दों को शब्दों के माध्यम से कुछ अर्थ देने की कोशिश के साथ ........
शब्द शब्द शब्द
हवा में शब्द, फिजां में शब्द
ये भी शब्द, वो भी शब्द
शब्द भी शब्द, निःशब्द भी शब्द
तू भी शब्द, मैं भी शब्द
आ मायने बन कर
इस कायनात में बिखर जाएँ
शब्द शब्द शब्द
हवा में शब्द, फिजां में शब्द
ये भी शब्द, वो भी शब्द
शब्द भी शब्द, निःशब्द भी शब्द
तू भी शब्द, मैं भी शब्द
आ मायने बन कर
इस कायनात में बिखर जाएँ
शनिवार, 10 अक्टूबर 2009
शब्दों का सिलसिला ..........
अमेरिका के लम्बे प्रवास के बाद दुबई की वापसी ........ घर आने का आनंद ........ शब्दों के माध्यम से कुछ और शब्दों को सिमेटने की कोशिश .......
१)
"प्यार"
गहरा अर्थ लिए
अर्थ हीन शब्द
दीमक की तरह चाट गया
मेरे होने का अर्थ ......
२)
"मौन"
शब्द होते हुवे निःशब्द
अर्थ को अभिव्यक्त करता
निःशब्द
शब्द ......
३)
"शब्द"
होठ से निकले
तो शब्द
आँख से निकले
तो अर्थ ......
१)
"प्यार"
गहरा अर्थ लिए
अर्थ हीन शब्द
दीमक की तरह चाट गया
मेरे होने का अर्थ ......
२)
"मौन"
शब्द होते हुवे निःशब्द
अर्थ को अभिव्यक्त करता
निःशब्द
शब्द ......
३)
"शब्द"
होठ से निकले
तो शब्द
आँख से निकले
तो अर्थ ......
शनिवार, 26 सितंबर 2009
शब्द .....
दुबई से कोसों मील दूर अमेरिका के एक छोटे से शहर अल पेसो की छिटकी हुए धुप में होटल के कमरे में बैठे कुछ शब्द मन के आँगन में घुमड़ने लगे हैं ..... कोशिश कर के कागज़ के पन्नों में उतार दिया है उन शब्दों को ........ अब आपके सामने अभिव्यक्त कर रहा हूँ ..........
१)
हवा में अटके कुछ शब्द
बोलने को छटपटाते हैं
अभिव्यक्ति की सांकल
हौले से खटखटाते हैं
अर्थ के दरवाज़े से
खाली हाथ लौट आते हैं
व्यक्त होने से पहले
दिवंगत हो जाते हैं ......
२)
कुछ कह भि लिया
कुछ सुन भि लिया
गूंगे शब्दों की भाषा को
अभिव्यक्ति के मौन ने
चुन भि लिया ........
३)
हवा में तैरते कुछ शब्द
अर्थ की निरंतर तलाश में
तेरे होठ छू कर
अभिव्यक्त हो गए ........
१)
हवा में अटके कुछ शब्द
बोलने को छटपटाते हैं
अभिव्यक्ति की सांकल
हौले से खटखटाते हैं
अर्थ के दरवाज़े से
खाली हाथ लौट आते हैं
व्यक्त होने से पहले
दिवंगत हो जाते हैं ......
२)
कुछ कह भि लिया
कुछ सुन भि लिया
गूंगे शब्दों की भाषा को
अभिव्यक्ति के मौन ने
चुन भि लिया ........
३)
हवा में तैरते कुछ शब्द
अर्थ की निरंतर तलाश में
तेरे होठ छू कर
अभिव्यक्त हो गए ........
बुधवार, 16 सितंबर 2009
अब टाट का पैबंद लगाया न जाएगा
गीत कोई विरह का गाया न जाएगा
इन आंसुओं का भार उठाया न जाएगा
गोलियों से बात होती है जहां दिन भर
मैं तो क्या मेरा वहां साया न जाएगा
फट गयी कमीज तो भी पहन लेंगे हम
अब टाट का पैबंद लगाया न जाएगा
सो रहे जो लोग वो तो जाग जायेंगे
जागे हुवे सोतों को जगाया न जाएगा
बेरुखी से आज हमको देख न साकी
उठ गया तो लौट कर आया न जाएगा
इन आंसुओं का भार उठाया न जाएगा
गोलियों से बात होती है जहां दिन भर
मैं तो क्या मेरा वहां साया न जाएगा
फट गयी कमीज तो भी पहन लेंगे हम
अब टाट का पैबंद लगाया न जाएगा
सो रहे जो लोग वो तो जाग जायेंगे
जागे हुवे सोतों को जगाया न जाएगा
बेरुखी से आज हमको देख न साकी
उठ गया तो लौट कर आया न जाएगा
गुरुवार, 10 सितंबर 2009
ये दर्द के हैं आँसू आ पलक में सजा लें
ये प्रीत की है मेहँदी फिर हाथ में लगा लें
रूठे हुवे हैं सजाना चल प्यार से मना लें
इस दर्द से सिसकती खामोश ज़िंदगी को
लम्हा जो छू के आया आ जिंदगी बना लें
शबनम की बूँद है तो ये सूखती नही क्यों
ये दर्द के हैं आँसू आ पलक में सजा लें
इस गीत की उदासी कहती है इक कहानी
महफ़िल में है अंधेरा चल रोशनी जला लें
तुम अंजूरी में भर के खुशियाँ समेट लेना
हम दस्ते-नाज़ुकी से कंकड़ सभी उठा लें
रूठे हुवे हैं सजाना चल प्यार से मना लें
इस दर्द से सिसकती खामोश ज़िंदगी को
लम्हा जो छू के आया आ जिंदगी बना लें
शबनम की बूँद है तो ये सूखती नही क्यों
ये दर्द के हैं आँसू आ पलक में सजा लें
इस गीत की उदासी कहती है इक कहानी
महफ़िल में है अंधेरा चल रोशनी जला लें
तुम अंजूरी में भर के खुशियाँ समेट लेना
हम दस्ते-नाज़ुकी से कंकड़ सभी उठा लें
गुरुवार, 3 सितंबर 2009
बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये
वतन से वापसी, अर्श जी, अनिल जी, राजीव रंजन जी से मुलाकात की हसीन यादें समेटे, ताऊ श्री के रहस्य को जानने की कोशिश के साथ, गुरुवर पंकज जी, गौतम जी, दर्पण जी, निर्मला जी, मुफ़लिस जी से हुई बातचीत को मन में संजोए पेश है ये ग़ज़ल. आपको पसंद आए तो सार्थक है.
सोने वाले सोए रहे घर वाले जाग गए
आग लगी तो शहर के सारे चूहे भाग गए
कच्ची पगडंडी से जब जब डिस्को गाँव चले
गीतों की मस्ती सावन के झूले फाग गये
बिखर गये हैं छन्द गीत के, टूट गये सब तार
मेघों की गर्जन, भंवरों के कोमल राग गये
पागलपन, उन्माद है कैसा, कैसी है यह प्यास
पहले जंगल फिर हरियाली अब ये बाग़ गए
लौट के घर ना आया वो भी चला गया उस पार
बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये
सोने वाले सोए रहे घर वाले जाग गए
आग लगी तो शहर के सारे चूहे भाग गए
कच्ची पगडंडी से जब जब डिस्को गाँव चले
गीतों की मस्ती सावन के झूले फाग गये
बिखर गये हैं छन्द गीत के, टूट गये सब तार
मेघों की गर्जन, भंवरों के कोमल राग गये
पागलपन, उन्माद है कैसा, कैसी है यह प्यास
पहले जंगल फिर हरियाली अब ये बाग़ गए
लौट के घर ना आया वो भी चला गया उस पार
बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये
गुरुवार, 20 अगस्त 2009
छोड़ कर मैं आ गया कुछ बोल तेरे द्वार पर
शनिवार से एक हफ्ते की छुट्टी ............ ब्लोगिंग से दूर, दुबई की जलती गर्मी से भी दूर, वतन की भीनी भीनी खुशबू का आनंद लेते. तब तक के लिए ये ग़ज़ल आप सब की नज़र ..............
आरजू वादे, वफ़ा, जुस्तजू और प्यार पर
कितने अफ़साने बने हैं इक निगाहें यार पर
पार कर लेगा तमाम ज़िन्दगी की अड़चनें
रात दिन चलता रहा जो चाकुओं कि धार पर
मोर फिर नाचा नहीं न प्यास धरती की बुझी
झूम कर बादल मगर इतरा रहा बौछार पर
जा बसा बेटा शहर तो कमर फिर झुकने लगी
आ गया फिर बोझ पूरे घर का इस दीवार पर
गीत बन कर महक उठेंगे जो कि तुमने स्वर दिये
छोड़ कर मैं आ गया कुछ बोल तेरे द्वार पर
आरजू वादे, वफ़ा, जुस्तजू और प्यार पर
कितने अफ़साने बने हैं इक निगाहें यार पर
पार कर लेगा तमाम ज़िन्दगी की अड़चनें
रात दिन चलता रहा जो चाकुओं कि धार पर
मोर फिर नाचा नहीं न प्यास धरती की बुझी
झूम कर बादल मगर इतरा रहा बौछार पर
जा बसा बेटा शहर तो कमर फिर झुकने लगी
आ गया फिर बोझ पूरे घर का इस दीवार पर
गीत बन कर महक उठेंगे जो कि तुमने स्वर दिये
छोड़ कर मैं आ गया कुछ बोल तेरे द्वार पर
गुरुवार, 13 अगस्त 2009
यादों की नागफनी
उग आये हैं
समय की नागफनी पर
याद के कांटे
नोचने के अनवरत प्रयास में
चुभता हैं दंश
बीती बातों का
पूनम की रातों का
गुज़रे मधुमास का
अनबुझी प्यास का
लहुलुहान हाथों के
रिस्ते खून के साथ
बहा देना चाहता हूँ
तेरी यादों का जंगल
हमेशा हमेशा के लिए
पर ये नागफनी
सूख कर गिरती भी तो नहीं
समय की नागफनी पर
याद के कांटे
नोचने के अनवरत प्रयास में
चुभता हैं दंश
बीती बातों का
पूनम की रातों का
गुज़रे मधुमास का
अनबुझी प्यास का
लहुलुहान हाथों के
रिस्ते खून के साथ
बहा देना चाहता हूँ
तेरी यादों का जंगल
हमेशा हमेशा के लिए
पर ये नागफनी
सूख कर गिरती भी तो नहीं
सोमवार, 10 अगस्त 2009
कृष्ण देखें आज किसके पक्ष है
लाल रंग से रंगा हर कक्ष है
एक सत्ता दूसरा विपक्ष है
न्याय की कुर्सी पे है बैठा हुवा
शक्ति उसके हाथ में प्रत्यक्ष है
चापलूसी भी तो आनी चाहिए
क्या हुवा जो कार्य में वो दक्ष है
आज सब कैदी रिहा हो जायेंगे
छल कपट ही आज का अध्यक्ष है
आज भी शकुनी का पक्ष है भारी
गया द्वापर प्रश्न फिर भी यक्ष है
धर्म के बदले हुवे हैं मायने
कृष्ण देखें आज किसके पक्ष है
एक सत्ता दूसरा विपक्ष है
न्याय की कुर्सी पे है बैठा हुवा
शक्ति उसके हाथ में प्रत्यक्ष है
चापलूसी भी तो आनी चाहिए
क्या हुवा जो कार्य में वो दक्ष है
आज सब कैदी रिहा हो जायेंगे
छल कपट ही आज का अध्यक्ष है
आज भी शकुनी का पक्ष है भारी
गया द्वापर प्रश्न फिर भी यक्ष है
धर्म के बदले हुवे हैं मायने
कृष्ण देखें आज किसके पक्ष है
शनिवार, 1 अगस्त 2009
क्या ये प्रेम है.......
1)
लहरों की चाहत ..........
चाँद को पाने की अल्हड़ सी होड़
पल भर में जीवन जीने की प्यास
उश्रंखल प्रेम का उन्मुक्त उल्लास.......
अपने उन्माद में खो जाने का चाह
दूर क्षितिज पर डूबते चाँद के साथ
अपने वजूद को मिटा देने की जंग
कृष्न में समा कर
कृष्णमय हो जाने की उमंग........
प्रेम ही तो मुक्ति का मार्ग है.........
2)
समय की दराज से
छिटक कर गिर गए
कुछ लम्हे ........
बाकी है
अभी भी उन लम्हों में......
सांस लेती चिंगारियां
बुदबुदाते अस्फुट शब्द ......
अटकती साँसें
महकता एहसास ........
सादगी भरा
पलकें झुकाए
पूजा की थाली लिए
गुलाबी साड़ी में लिपटा
तेरा रूप...........
और भी बाकी है बहुत कुछ
उन जागते लम्हों में ........
वो कहानी फिर कभी ........
लहरों की चाहत ..........
चाँद को पाने की अल्हड़ सी होड़
पल भर में जीवन जीने की प्यास
उश्रंखल प्रेम का उन्मुक्त उल्लास.......
अपने उन्माद में खो जाने का चाह
दूर क्षितिज पर डूबते चाँद के साथ
अपने वजूद को मिटा देने की जंग
कृष्न में समा कर
कृष्णमय हो जाने की उमंग........
प्रेम ही तो मुक्ति का मार्ग है.........
2)
समय की दराज से
छिटक कर गिर गए
कुछ लम्हे ........
बाकी है
अभी भी उन लम्हों में......
सांस लेती चिंगारियां
बुदबुदाते अस्फुट शब्द ......
अटकती साँसें
महकता एहसास ........
सादगी भरा
पलकें झुकाए
पूजा की थाली लिए
गुलाबी साड़ी में लिपटा
तेरा रूप...........
और भी बाकी है बहुत कुछ
उन जागते लम्हों में ........
वो कहानी फिर कभी ........
रविवार, 26 जुलाई 2009
भोर का स्पंदन....
आलिंगन को व्याकुल
अलसाई सी रात
सिन्दूरी कम्बल ओढे
आ रहा प्रभात ........
प्रकाश में समां जाने का उन्माद
अस्तित्व खो देने की चाह
छाने लगे हैं देखो
प्रकृति के अद्भुद रंग
प्रारंभ होता है
साँसों का इक प्रवाह ......
चिडियों का चहचहाना
भंवरों का गुनगुनाना
लहरों का ठहर जाना
बेताब तितलियों का
आँगन में खिलखिलाना ......
चलने लगी है श्रृष्टि
सुबह की पगली किरण
उतर आई है तेरे सिरहाने
आ मिल कर करें
नव रश्मि का अभिनंदन
वो आ रहा है देखो
भोर का स्पंदन.........
अलसाई सी रात
सिन्दूरी कम्बल ओढे
आ रहा प्रभात ........
प्रकाश में समां जाने का उन्माद
अस्तित्व खो देने की चाह
छाने लगे हैं देखो
प्रकृति के अद्भुद रंग
प्रारंभ होता है
साँसों का इक प्रवाह ......
चिडियों का चहचहाना
भंवरों का गुनगुनाना
लहरों का ठहर जाना
बेताब तितलियों का
आँगन में खिलखिलाना ......
चलने लगी है श्रृष्टि
सुबह की पगली किरण
उतर आई है तेरे सिरहाने
आ मिल कर करें
नव रश्मि का अभिनंदन
वो आ रहा है देखो
भोर का स्पंदन.........
सोमवार, 20 जुलाई 2009
चाहत
महसूस किया है
झुर्मुट की आड़ से
पीले समुंद्र के उस पार से
कोई तो गुज़रा है
इस रेत के पहाड़ से
ताज़ा है अभी
कुछ कदमों की आहट
रेत के समुंदर में
उड़ रही है चाहत
वो चाँद है पूनम का
या खुश्बू तेरे एहसास की
जन्म-जन्मांतर की प्यास है
या बात है इक रात की
सोच लेंगे कभी फ़ुर्सत में
अभी तो जी लेने दो ये लम्हा
झुर्मुट की आड़ से
पीले समुंद्र के उस पार से
कोई तो गुज़रा है
इस रेत के पहाड़ से
ताज़ा है अभी
कुछ कदमों की आहट
रेत के समुंदर में
उड़ रही है चाहत
वो चाँद है पूनम का
या खुश्बू तेरे एहसास की
जन्म-जन्मांतर की प्यास है
या बात है इक रात की
सोच लेंगे कभी फ़ुर्सत में
अभी तो जी लेने दो ये लम्हा
सोमवार, 13 जुलाई 2009
मौन आमंत्रण
1)
पूनम का चाँद
तुम्हें पा लेने का
मौन आमंत्रण
उष्रंखल होती मुक्त लहरें
तुझमे समा जाने का पागलपन
किनारों से टूट कर बिखरने का उन्माद
अपने अस्तित्व को खो देने की चाहत
पानी की बिखरी बूँदों में
मेरा अक्स चमकने लगा है
2)
तपती दोपहरी
पिघलता रेगिस्तान
पानी की स्याही से
रेत पर लिखा
मौन आमंत्रण
कतरा कतरा जागती प्यास
तू करीब हो कर भी कितना दूर
दहकती रेत पर
उतरने लगी है सुरमई चादर
आ दो पल बिता लें
जुदा होने से पहले
पूनम का चाँद
तुम्हें पा लेने का
मौन आमंत्रण
उष्रंखल होती मुक्त लहरें
तुझमे समा जाने का पागलपन
किनारों से टूट कर बिखरने का उन्माद
अपने अस्तित्व को खो देने की चाहत
पानी की बिखरी बूँदों में
मेरा अक्स चमकने लगा है
2)
तपती दोपहरी
पिघलता रेगिस्तान
पानी की स्याही से
रेत पर लिखा
मौन आमंत्रण
कतरा कतरा जागती प्यास
तू करीब हो कर भी कितना दूर
दहकती रेत पर
उतरने लगी है सुरमई चादर
आ दो पल बिता लें
जुदा होने से पहले
मंगलवार, 7 जुलाई 2009
अनबुझी प्यास
1)
अचानक बोलते हुवे
तेरा रुक जाना
दांतों में दुपट्टा दबाये
हौले हौले दीवार खुरचते
मेरी आगोश में सिमिट आना
मेरा पूर्ण से सम्पूर्ण हो जाना
सत्य शिवम् में खो जाना
देखो .................
प्रेम के उन्मुक्त गगन में
इन्द्रधनुष के रंग बिखर आये हैं
2)
नीले सागर के साथ
मीलों चलता रेत का सागर
किनारे तोड़ कर आती
उन्मुक्त सागर की लहरें
सूखी रेत को लील लेने की
अनबुझी प्यास
लहरों के नर्तन में
शामिल है शायद
मेरी अनंत चाहत का जवाब
अचानक बोलते हुवे
तेरा रुक जाना
दांतों में दुपट्टा दबाये
हौले हौले दीवार खुरचते
मेरी आगोश में सिमिट आना
मेरा पूर्ण से सम्पूर्ण हो जाना
सत्य शिवम् में खो जाना
देखो .................
प्रेम के उन्मुक्त गगन में
इन्द्रधनुष के रंग बिखर आये हैं
2)
नीले सागर के साथ
मीलों चलता रेत का सागर
किनारे तोड़ कर आती
उन्मुक्त सागर की लहरें
सूखी रेत को लील लेने की
अनबुझी प्यास
लहरों के नर्तन में
शामिल है शायद
मेरी अनंत चाहत का जवाब
रविवार, 28 जून 2009
महकता एहसास
1)
शब्द जब गूंगे हो जाए
सांस कुछ कहने लगे
चाँद की ओटक से निकल
काली रात सरकने लगे
गुनगुनाती हवा नए साज़ छेड़े
तू चली आये
रात रानी की खुशबू का आँचल ओड़े
तेरी नर्म हथेली
अपने हाथों में लेकर
मैं मुंह छुपा लूँगा.....
तेरे हाथ की रेखाओं में
हमेशा के लिए बस जाऊँगा
2)
जब कभी
स्याह चादर लपेटे
ये कायनात सो जाएगी
दूर से आती
लालटेन की पीली रौशनी
जागते रहो का अलाप छेड़ेगी
दो मासूम आँखें
दरवाज़े की सांकल खोल
किसी के इंतज़ार में
अंधेरा चूम लेंगी
जैसे क्षितिज पर चूम लेते हैं
बादल ज़मीन को
वक़्त उस वक़्त ठहर जाएगा
शब्द जब गूंगे हो जाए
सांस कुछ कहने लगे
चाँद की ओटक से निकल
काली रात सरकने लगे
गुनगुनाती हवा नए साज़ छेड़े
तू चली आये
रात रानी की खुशबू का आँचल ओड़े
तेरी नर्म हथेली
अपने हाथों में लेकर
मैं मुंह छुपा लूँगा.....
तेरे हाथ की रेखाओं में
हमेशा के लिए बस जाऊँगा
2)
जब कभी
स्याह चादर लपेटे
ये कायनात सो जाएगी
दूर से आती
लालटेन की पीली रौशनी
जागते रहो का अलाप छेड़ेगी
दो मासूम आँखें
दरवाज़े की सांकल खोल
किसी के इंतज़ार में
अंधेरा चूम लेंगी
जैसे क्षितिज पर चूम लेते हैं
बादल ज़मीन को
वक़्त उस वक़्त ठहर जाएगा
शनिवार, 20 जून 2009
रिसने लगी रोशनी है आफताब से
बहुत दिनों तक प्रेम के उन्मुक्त सागर में डुबकियां लगाते छंद-मुक्त रचनाओं में खो गया था......लीजिये आज फिर से पेश है ग़ज़ल आप सब की नज़र जो आदरणीय पंकज जी के आर्शीवाद से सजी, संवरी है.........
गंध सी झरने लगी है माहताब से,
पंखुरी क्या तोड़ ली तुमने गुलाब से
शाम का सिंदूर राह पर बिखर गया
रिसने लगी रोशनी है आफताब से
कौन ये जाने के दर्द कितना है छुपा
मंडियां झिलमिल हैं हो रहीं शबाब से
फिर कोई ताजा फसाना ढूंढ लेंगें वो
फूल है सूखा हुआ मिला किताब से
बांध के अश्कों को रोक तो लिया गया
झांक रहा दर्द किन्तु है नकाब से
गंध सी झरने लगी है माहताब से,
पंखुरी क्या तोड़ ली तुमने गुलाब से
शाम का सिंदूर राह पर बिखर गया
रिसने लगी रोशनी है आफताब से
कौन ये जाने के दर्द कितना है छुपा
मंडियां झिलमिल हैं हो रहीं शबाब से
फिर कोई ताजा फसाना ढूंढ लेंगें वो
फूल है सूखा हुआ मिला किताब से
बांध के अश्कों को रोक तो लिया गया
झांक रहा दर्द किन्तु है नकाब से
सोमवार, 15 जून 2009
शब्द कुछ भटके हुवे
१)
कोहरे से छन कर आती
लैंप पोस्ट की पीली रौशनी तले
पश्मीना की शाल ओढे
गुमसुम
खंभे से सर टिकाये
खामोश बैठी थी वो रात
ठण्ड से कांपती हवा
तेरे होठों को छू कर
गुज़र गयी थी उस रोज़……
बस तभी से दो आंसू
जमें रहते हैं मेरी पलकों में...........
२)
रूई गिर रही थी उस पल
बर्फ की सफ़ेद चादर पर
फ़र की नीली टोपी पहने
तुमने कुछ कहा था जिस पल
हवा में गिरने से पहले
जम गए थे वो शब्द.........
आज भी जाग उठते हैं वो शब्द
बर्फ की सफ़ेद चादर
जब धीरे धीरे पिघलती है........
नया मौसम भी तो अंगडाई लेता है उस पल
कोहरे से छन कर आती
लैंप पोस्ट की पीली रौशनी तले
पश्मीना की शाल ओढे
गुमसुम
खंभे से सर टिकाये
खामोश बैठी थी वो रात
ठण्ड से कांपती हवा
तेरे होठों को छू कर
गुज़र गयी थी उस रोज़……
बस तभी से दो आंसू
जमें रहते हैं मेरी पलकों में...........
२)
रूई गिर रही थी उस पल
बर्फ की सफ़ेद चादर पर
फ़र की नीली टोपी पहने
तुमने कुछ कहा था जिस पल
हवा में गिरने से पहले
जम गए थे वो शब्द.........
आज भी जाग उठते हैं वो शब्द
बर्फ की सफ़ेद चादर
जब धीरे धीरे पिघलती है........
नया मौसम भी तो अंगडाई लेता है उस पल
गुरुवार, 11 जून 2009
वक़्त से चुराए कुछ पल
1)
काश मैं वक़्त को रोक लेता
तेरी खुश्बू
इन वादियों में बस जाती
इंद्रधनुष के रंगों में
तू झिलमिलाती
मैं इन रंगों को चुरा लेता
ता उम्र तेरे रंगों में रंगे
जीवन बिता देता
काश मैं वक़्त को रोक लेता
2)
सूरज के सो जाने पर
शाम के मुहाने पर
अँधेरे की चादर लपेटे
रात उतरी है तेरे सिरहाने पर
उठा कर रेशमी रजाई
तू मुखडा दिखा देना
सितारे भी बेताब हैं
तेरे पहलू में उतर आने को
3)
अचानक
नीले आकाश पर
काली बदली का छा जाना
मस्ती में झूमती
बूंदों की ताल पर
मयूर का थिरकना
तेज़ हवा के झौंकों में
तितलियों का लरजना
लगता है
दूर तक फैली इन वादियों ने
तेरे क़दमों की आहट सुन ली
काश मैं वक़्त को रोक लेता
तेरी खुश्बू
इन वादियों में बस जाती
इंद्रधनुष के रंगों में
तू झिलमिलाती
मैं इन रंगों को चुरा लेता
ता उम्र तेरे रंगों में रंगे
जीवन बिता देता
काश मैं वक़्त को रोक लेता
2)
सूरज के सो जाने पर
शाम के मुहाने पर
अँधेरे की चादर लपेटे
रात उतरी है तेरे सिरहाने पर
उठा कर रेशमी रजाई
तू मुखडा दिखा देना
सितारे भी बेताब हैं
तेरे पहलू में उतर आने को
3)
अचानक
नीले आकाश पर
काली बदली का छा जाना
मस्ती में झूमती
बूंदों की ताल पर
मयूर का थिरकना
तेज़ हवा के झौंकों में
तितलियों का लरजना
लगता है
दूर तक फैली इन वादियों ने
तेरे क़दमों की आहट सुन ली
शनिवार, 6 जून 2009
तुम
१)
ख़ामोशी को
लग गयी ज़ुबां
बोलती रही
बीते लम्हों की दास्ताँ
कोहरे की चादर लपेटे
गुज़रता रहा कारवाँ
२)
काश मैं वक़्त को रोक पाता
घड़ी की सूइयों को मोड़ पाता
देखता रहता उम्र भर
पूजा की थाली लिए
पलकें झुकाये
गुलाबी साड़ी में लिपटा
सादगी भरा तेरा रूप........
३)
चाँद जब समुन्दर में उतरे
नूर तारों का
लहरों में बिखरे
तुम आसमाँ पर चली आना
रोक लूँगा यूँ ही इस रात को
तुम चाँद बन कर मुस्कुराना
मैंने सुना है इस धरती का
एक ही चाँद है
ख़ामोशी को
लग गयी ज़ुबां
बोलती रही
बीते लम्हों की दास्ताँ
कोहरे की चादर लपेटे
गुज़रता रहा कारवाँ
२)
काश मैं वक़्त को रोक पाता
घड़ी की सूइयों को मोड़ पाता
देखता रहता उम्र भर
पूजा की थाली लिए
पलकें झुकाये
गुलाबी साड़ी में लिपटा
सादगी भरा तेरा रूप........
३)
चाँद जब समुन्दर में उतरे
नूर तारों का
लहरों में बिखरे
तुम आसमाँ पर चली आना
रोक लूँगा यूँ ही इस रात को
तुम चाँद बन कर मुस्कुराना
मैंने सुना है इस धरती का
एक ही चाँद है
सोमवार, 1 जून 2009
दर्द
१)
सुर्ख पगडंडी पर
तैरता लावा
रिसते हुवे खून से बनी
तेरे माथे की वो लकीर
जिसके उस पार
उतरने की जद्दोजहद
जिस्म के आखरी कतरे तक
जगनू सी चमकती रहेगी
तेरी मांग
२)
तम्हारे पावँ के छाले
अपनी पलकों में सहेज लूँगा
तेरे दिल पर पढ़े ज़ख्म
दस्ते-नाज़ुकी से उठा लूँगा
तेरे दर्द का सहारा लेकर
तुझी से.................
एक रिश्ता जोड़ लूँगा
३)
तेरे माथे पर उभर आयी
पसीने की बूंदें
तेरी आँखों में उभरता
आंसुओं का सैलाब
हल्के हल्के से आती
सिसकियों की आवाज़
तू चुपके से
मेरी बाहों में सो जाना
धीरे धीरे
मीठे सपनों में खो जाना
सुर्ख पगडंडी पर
तैरता लावा
रिसते हुवे खून से बनी
तेरे माथे की वो लकीर
जिसके उस पार
उतरने की जद्दोजहद
जिस्म के आखरी कतरे तक
जगनू सी चमकती रहेगी
तेरी मांग
२)
तम्हारे पावँ के छाले
अपनी पलकों में सहेज लूँगा
तेरे दिल पर पढ़े ज़ख्म
दस्ते-नाज़ुकी से उठा लूँगा
तेरे दर्द का सहारा लेकर
तुझी से.................
एक रिश्ता जोड़ लूँगा
३)
तेरे माथे पर उभर आयी
पसीने की बूंदें
तेरी आँखों में उभरता
आंसुओं का सैलाब
हल्के हल्के से आती
सिसकियों की आवाज़
तू चुपके से
मेरी बाहों में सो जाना
धीरे धीरे
मीठे सपनों में खो जाना
गुरुवार, 28 मई 2009
इक नज़्म की इब्तदा
१)
सूखे पत्तों से उठती सिसकियाँ,
मसले हुवे फूलूँ से रिसता दर्द,
बादलों का सीना चीर कर बरसते आंसू,
आज भारी है कुछ मौसम का मिजाज़,
लगता है इक नज़्म की इब्तदा होगी,
क्यों हूँ में इतना उदास.........
२)
सूखे होठों पर अटके लफ्ज़,
बिस्तर की सिलवटों पर सिसकती रात,
तेरी कलाई में खनकने को बेताब कंगन,
खामोशी भी करती है जैसे बात,
चिनाब का किनारा भी गाता है हीर,
लगता है इक नज़्म की इब्तदा होगी,
खाली निगाहों से,
तकता है मुझे कोई आज........
सूखे पत्तों से उठती सिसकियाँ,
मसले हुवे फूलूँ से रिसता दर्द,
बादलों का सीना चीर कर बरसते आंसू,
आज भारी है कुछ मौसम का मिजाज़,
लगता है इक नज़्म की इब्तदा होगी,
क्यों हूँ में इतना उदास.........
२)
सूखे होठों पर अटके लफ्ज़,
बिस्तर की सिलवटों पर सिसकती रात,
तेरी कलाई में खनकने को बेताब कंगन,
खामोशी भी करती है जैसे बात,
चिनाब का किनारा भी गाता है हीर,
लगता है इक नज़्म की इब्तदा होगी,
खाली निगाहों से,
तकता है मुझे कोई आज........
शनिवार, 23 मई 2009
बोलते लम्हे ......
१)
अक्सर देखा है तुझे
खुले आसमान के नीचे
हथेली में सजाते बारिश की रिमझिम बूँदें.......
तेरे ख़्वाबों से झिलमिलाती
तेरे एहसास से भीगी वो बूँदें
पलकों पर सजा लूँगा
धीरे धीरे देखूंगा.............
पूरा होता तेरा ख्वाब........
२)
गीले बालों से टपकती बूँदें
सख्त खुरदरी हथेली पर
जैसे सफ़ेद मोती
गिर रहे हों ज़मीं पर
कोंपलें सरसों की
धीरे धीरे उग रही हैं
बसंत होता मौसम
छेड़ देता है मन के तार
नाच उठता है मन मयूर......
शायद किसी मासूम एहसास ने
करवट बदली है आज .........
३)
चिडियों का चहचहाना
बरखा का टिप टिपाना
पवन का खिल खिलाना
सूखे पत्तों की सरसराहट
तेरे चेहरे की मुस्कराहट
फिर तेरे आने की आहट
वो देखो...
श्रृष्टि ने अभी अभी ...
मेरी कविता का सृजन किया ...
अक्सर देखा है तुझे
खुले आसमान के नीचे
हथेली में सजाते बारिश की रिमझिम बूँदें.......
तेरे ख़्वाबों से झिलमिलाती
तेरे एहसास से भीगी वो बूँदें
पलकों पर सजा लूँगा
धीरे धीरे देखूंगा.............
पूरा होता तेरा ख्वाब........
२)
गीले बालों से टपकती बूँदें
सख्त खुरदरी हथेली पर
जैसे सफ़ेद मोती
गिर रहे हों ज़मीं पर
कोंपलें सरसों की
धीरे धीरे उग रही हैं
बसंत होता मौसम
छेड़ देता है मन के तार
नाच उठता है मन मयूर......
शायद किसी मासूम एहसास ने
करवट बदली है आज .........
३)
चिडियों का चहचहाना
बरखा का टिप टिपाना
पवन का खिल खिलाना
सूखे पत्तों की सरसराहट
तेरे चेहरे की मुस्कराहट
फिर तेरे आने की आहट
वो देखो...
श्रृष्टि ने अभी अभी ...
मेरी कविता का सृजन किया ...
सोमवार, 18 मई 2009
लम्हों की जुबां
१)
चीर कर बादल का किनारा,
चांदनी जब छाने लगेगी,
सरसराती हवा मस्ती में गाने लगेगी,
मुस्कुराती रात,
सर्दी का कम्बल लपेटे,
जब तेरे सिरहाने उतर आएगी,
तू मेरी बाहों में समा जाना,
अलाव खुद -बा-खुद जल उठेंगे.
२)
किसी की बेरुखी,
तू दिल पर न लेना,
बस इतना सोच लेना,
वक़्त हर घाव की दवा है...
अपनी आँखों में उठता समुन्दर,
पलकों के मुहाने ही रोक लेना,
कतरा कतरा मैं पीता रहूँगा,
तेरी प्यास में मैं जीता रहूँगा.
३)
थम गयी है हवा,
ठिठक गयी कायनात,
क्यूँ न नीले आसमान की चादर पर सजे,
बादल के सफ़ेद फूल,
फूंक मार कर उड़ा दूं........
या हलके से गुदगुदी कर,
तुझे हंसा दूं.......
बादलों के बदलते रूप में,
तेरा उदास चेहरा,
अच्छा नहीं लगता........
जब तू खिलखिला कर हंस पड़ेगी,
ये हवा चल पड़ेगी,
बादल भी बदलने लगेगा अपना रूप,
अटकी हुई कायनात,
खुद-बा-खुद चल पड़ेगी.
चीर कर बादल का किनारा,
चांदनी जब छाने लगेगी,
सरसराती हवा मस्ती में गाने लगेगी,
मुस्कुराती रात,
सर्दी का कम्बल लपेटे,
जब तेरे सिरहाने उतर आएगी,
तू मेरी बाहों में समा जाना,
अलाव खुद -बा-खुद जल उठेंगे.
२)
किसी की बेरुखी,
तू दिल पर न लेना,
बस इतना सोच लेना,
वक़्त हर घाव की दवा है...
अपनी आँखों में उठता समुन्दर,
पलकों के मुहाने ही रोक लेना,
कतरा कतरा मैं पीता रहूँगा,
तेरी प्यास में मैं जीता रहूँगा.
३)
थम गयी है हवा,
ठिठक गयी कायनात,
क्यूँ न नीले आसमान की चादर पर सजे,
बादल के सफ़ेद फूल,
फूंक मार कर उड़ा दूं........
या हलके से गुदगुदी कर,
तुझे हंसा दूं.......
बादलों के बदलते रूप में,
तेरा उदास चेहरा,
अच्छा नहीं लगता........
जब तू खिलखिला कर हंस पड़ेगी,
ये हवा चल पड़ेगी,
बादल भी बदलने लगेगा अपना रूप,
अटकी हुई कायनात,
खुद-बा-खुद चल पड़ेगी.
बुधवार, 13 मई 2009
मासूम एहसास
१)
खिड़की के सुराख से निकल
भोर की पहली किरन
चुपके से तेरे करीब आ जाती है
कुछ सोई, कुछ जागी हुयी नींद के बीच
तेरा मासूम चेहरा सिन्दूरी हो जाता है
जो हो सके तो कुछ देर और सोये रहना
मैं आज पूजा के थाल में
दीपक जलाना भूल गया
२)
अपनी हथेली पर
धूप की मखमली चादर लपेटे
तेरे आने का इंतज़ार कर रहा हूँ
नर्म ओस की बूंदों में
अपना एहसास समेटे
तू चुपके से चली आना
अपनी साँसों में भर लूँगा
धुंवा धुंवा होता तेरा एहसास
३)
अपनी तस्वीर आईने में देखी
अपनी तस्वीर में उनकी तस्वीर देखी
उनकी आँखों में छाई उदासी देखी
उनके चेहरे पे ढलती शाम देखी
फिर सोचा................
ये भी क्या तस्सवुर देखी
अपने महबूब की ही ऐसी तस्वीर देखी
खिड़की के सुराख से निकल
भोर की पहली किरन
चुपके से तेरे करीब आ जाती है
कुछ सोई, कुछ जागी हुयी नींद के बीच
तेरा मासूम चेहरा सिन्दूरी हो जाता है
जो हो सके तो कुछ देर और सोये रहना
मैं आज पूजा के थाल में
दीपक जलाना भूल गया
२)
अपनी हथेली पर
धूप की मखमली चादर लपेटे
तेरे आने का इंतज़ार कर रहा हूँ
नर्म ओस की बूंदों में
अपना एहसास समेटे
तू चुपके से चली आना
अपनी साँसों में भर लूँगा
धुंवा धुंवा होता तेरा एहसास
३)
अपनी तस्वीर आईने में देखी
अपनी तस्वीर में उनकी तस्वीर देखी
उनकी आँखों में छाई उदासी देखी
उनके चेहरे पे ढलती शाम देखी
फिर सोचा................
ये भी क्या तस्सवुर देखी
अपने महबूब की ही ऐसी तस्वीर देखी
शुक्रवार, 8 मई 2009
बारिशों में भीगते छप्पर से जाकर पूछना
गूरू देव पंकज सुबीर जी के आर्शीवाद ने इस ग़ज़ल को निखारा है .......
उम्मीद है आपको भी पसंद आएगी .......
बेरुखी, शिकवे गिले, बच्चों सा तेरा रूठना
चार दिन इस जिंदगी के हैं नहीं ये भूलना
पंख हैं कोशिश करो उड़ने की उड़ ही जाओगे
छोड़ दो यूं बिल्लियों को देख आंखें मूंदना
था गलत वो कल भी और है आज भी उतना गलत
सिर्फ जाति को बना आधार इन्सां पूजना
क्या हुआ देवालयों में जा न पाये तुम अगर
फूल जो मसले गए उनको उठा कर चूमना
दर्द उनका क्या है जिनके सर पे होती छत नहीं
बारिशों में भीगते छप्पर से जाकर पूछना
जब कभी छाने लगे दिल पर उदासी की घटा
तब किसी बच्चे की खिल खिल में खुशी को ढूंढना
उम्मीद है आपको भी पसंद आएगी .......
बेरुखी, शिकवे गिले, बच्चों सा तेरा रूठना
चार दिन इस जिंदगी के हैं नहीं ये भूलना
पंख हैं कोशिश करो उड़ने की उड़ ही जाओगे
छोड़ दो यूं बिल्लियों को देख आंखें मूंदना
था गलत वो कल भी और है आज भी उतना गलत
सिर्फ जाति को बना आधार इन्सां पूजना
क्या हुआ देवालयों में जा न पाये तुम अगर
फूल जो मसले गए उनको उठा कर चूमना
दर्द उनका क्या है जिनके सर पे होती छत नहीं
बारिशों में भीगते छप्पर से जाकर पूछना
जब कभी छाने लगे दिल पर उदासी की घटा
तब किसी बच्चे की खिल खिल में खुशी को ढूंढना
रविवार, 3 मई 2009
कुछ लम्हे...........
१)
जब शब्द गूंगे हो जाएँ
नज़र कुछ बोल न सके
यादों के दरख्त से टूटे लम्हे
वक़्त के साथ ठहर जाएँ
तुम चुपके से मुस्कुरा देना
हवा चल पड़ेगी.....
२)
जब सांझ की लाली
मेरे आँगन में उतर आएगी
वक़्त कुछ पल के लिए
ठिठक जायेगा
तुम्हें जब शाम की सिन्दूरी
छू रही होगी
मैं इक टीका चुरा लूँगा
तेरे सुर्ख होठों से.....
३)
सुबह रात का किवाड़
खटखटाती है
तारों की छाँव में बैठे चांदनी
मुस्कुराती है
ऐ रात की स्याही
कुछ देर ठहर जाना
आज उनसे पहली मुलाक़ात है
कहीं सपना टूट न जाए.....
जब शब्द गूंगे हो जाएँ
नज़र कुछ बोल न सके
यादों के दरख्त से टूटे लम्हे
वक़्त के साथ ठहर जाएँ
तुम चुपके से मुस्कुरा देना
हवा चल पड़ेगी.....
२)
जब सांझ की लाली
मेरे आँगन में उतर आएगी
वक़्त कुछ पल के लिए
ठिठक जायेगा
तुम्हें जब शाम की सिन्दूरी
छू रही होगी
मैं इक टीका चुरा लूँगा
तेरे सुर्ख होठों से.....
३)
सुबह रात का किवाड़
खटखटाती है
तारों की छाँव में बैठे चांदनी
मुस्कुराती है
ऐ रात की स्याही
कुछ देर ठहर जाना
आज उनसे पहली मुलाक़ात है
कहीं सपना टूट न जाए.....
गुरुवार, 23 अप्रैल 2009
हकीकत
मुरझाये
जीर्ण शीर्ण विकृत
सहमे से चेहरे....
कुछ खोजती हुयी
बीमार पीली पीली आँखे.....
न जाने कब लड़खडा कर
"साईंलेंसर" लगे
गिर जाने वाले कदम........
अँधेरी संकरी गलियों में
छीना झपटी करते हाथ.......
सदियों से लावारिस फुटपाथ पर
धकेल दिए जाते हैं
जिस तरह..........
जन्य शाखाओं से अनभिग्य
सूखे जर्जर पत्ते
सारे शहर से सिमेट कर
अँधेरे घटाटोप कूंवे में
बेतरतीब फैंक दिए जाते हैं
उन्हें कोई गुलदान में
नहीं सजाता
"वनस्पति शास्त्र" की कोपी में
नहीं लगाता
वह केवल जलने की लिए होते हैं.......
मात्र जलने के लिए .......
जीर्ण शीर्ण विकृत
सहमे से चेहरे....
कुछ खोजती हुयी
बीमार पीली पीली आँखे.....
न जाने कब लड़खडा कर
"साईंलेंसर" लगे
गिर जाने वाले कदम........
अँधेरी संकरी गलियों में
छीना झपटी करते हाथ.......
सदियों से लावारिस फुटपाथ पर
धकेल दिए जाते हैं
जिस तरह..........
जन्य शाखाओं से अनभिग्य
सूखे जर्जर पत्ते
सारे शहर से सिमेट कर
अँधेरे घटाटोप कूंवे में
बेतरतीब फैंक दिए जाते हैं
उन्हें कोई गुलदान में
नहीं सजाता
"वनस्पति शास्त्र" की कोपी में
नहीं लगाता
वह केवल जलने की लिए होते हैं.......
मात्र जलने के लिए .......
बुधवार, 15 अप्रैल 2009
मन में एक अंश भी बजरंग नही
आप नही जिंदगी में रंग नही,
रस नही, खुशी नही, उमंग नही,
आज हैं रूठे तो कल साथ होंगे,
दोस्ती की बात है कोई जंग नही,
प्यार के धागों से बँधा है बंधन,
कट गयी जो डोर तो पतंग नही,
खून के धब्बे हैं वो इंसानियत के,
फर्श पर बिखरा था लाल रंग नही,
इस शहर के रास्ते चौड़े हैं बहुत,
गाँव की पगडंडियाँ भी तंग नही,
राम के आदर्श तो बस नाम के,
मन में एक अंश भी बजरंग नही,
मौत से आगे का सफ़र है यारो,
तन्हा चलो कोई किसी के संग नही,
रस नही, खुशी नही, उमंग नही,
आज हैं रूठे तो कल साथ होंगे,
दोस्ती की बात है कोई जंग नही,
प्यार के धागों से बँधा है बंधन,
कट गयी जो डोर तो पतंग नही,
खून के धब्बे हैं वो इंसानियत के,
फर्श पर बिखरा था लाल रंग नही,
इस शहर के रास्ते चौड़े हैं बहुत,
गाँव की पगडंडियाँ भी तंग नही,
राम के आदर्श तो बस नाम के,
मन में एक अंश भी बजरंग नही,
मौत से आगे का सफ़र है यारो,
तन्हा चलो कोई किसी के संग नही,
बुधवार, 8 अप्रैल 2009
छोड़ जाते छाप
पोंछ दो आंसू किसी के है जो पश्चाताप,
व्यर्थ ही गंगाजली से धो रहे हो पाप,
सामना कैसे करूँगा सोच कर जाता नहीं,
माँ मेरी रोती बहुत है थक चुका है बाप,
यहाँ की हर चीज़ में मीठी सी यादें है बसी,
वो भी माँ का ट्रंक है जो बेच रहे आप,
चाँद की तो दूरियों को नापना आसान है,
बात है दिल की अगर गहराइयों को नाप,
लोग जो निर्माण करते हैं पसीने से डगर,
वक़्त की बंज़र ज़मीं पर छोड़ जाते छाप,
व्यर्थ ही गंगाजली से धो रहे हो पाप,
सामना कैसे करूँगा सोच कर जाता नहीं,
माँ मेरी रोती बहुत है थक चुका है बाप,
यहाँ की हर चीज़ में मीठी सी यादें है बसी,
वो भी माँ का ट्रंक है जो बेच रहे आप,
चाँद की तो दूरियों को नापना आसान है,
बात है दिल की अगर गहराइयों को नाप,
लोग जो निर्माण करते हैं पसीने से डगर,
वक़्त की बंज़र ज़मीं पर छोड़ जाते छाप,
शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009
क्यों नहीं
गुरु देव पंकज सुबीर जी के आशीर्वाद से तैयार ग़ज़ल......प्रस्तुत है आप सब के सामने
ठंडक का चांदनी में है एहसास क्यों नहीं,
सूरज में भी तपिश का है आभास क्यों नहीं,
गूंगे हैं शब्द, मौन है छन्दों की रागिनी,
हैं गीत भी मगर कोइ विन्यास क्यों नहीं,
जब साथ में जीवन सखी भी तेरे है वो फिर,
चहूं ओर महकता हुआ मधुमास क्यों नहीं,
अगनित यहां वो अग्नि परीक्षाएं दे चुकी,
सीता का खत्म हो रहा वनवास क्यों नहीं,
बचपन को गिरवी रख के समय की दुकान पर,
तुम पूछते हो शहर में उल्लास क्यों नहीं,
पशु पक्षी, पेड़ पौधे सभी पूछते हैं ये,
इस आदमी की बुझ रही है प्यास क्यों नहीं,
पत्थर के देवता ने कहा आदमी से ये,
तुझको है धर्म पे भला विश्वास क्यों नहीं,
ठंडक का चांदनी में है एहसास क्यों नहीं,
सूरज में भी तपिश का है आभास क्यों नहीं,
गूंगे हैं शब्द, मौन है छन्दों की रागिनी,
हैं गीत भी मगर कोइ विन्यास क्यों नहीं,
जब साथ में जीवन सखी भी तेरे है वो फिर,
चहूं ओर महकता हुआ मधुमास क्यों नहीं,
अगनित यहां वो अग्नि परीक्षाएं दे चुकी,
सीता का खत्म हो रहा वनवास क्यों नहीं,
बचपन को गिरवी रख के समय की दुकान पर,
तुम पूछते हो शहर में उल्लास क्यों नहीं,
पशु पक्षी, पेड़ पौधे सभी पूछते हैं ये,
इस आदमी की बुझ रही है प्यास क्यों नहीं,
पत्थर के देवता ने कहा आदमी से ये,
तुझको है धर्म पे भला विश्वास क्यों नहीं,
रविवार, 29 मार्च 2009
जब कभी ऐसा होगा.......
१)
जब कभी ऐसा होगा..............
ये कायनात रुक जायेगी
सांस लेती प्रकृति थम जायेगी
बहती हुयी हवा ठिठक जायेगी
आसमान पर चमकता सूरज अंधा हो जायेगा
पल इक पल को रुक जायेगा
उस पल...............
मैं चुपके से तुझे अपने हाथों में उठा लूंगा
कैद कर लूँगा तेरे मीठे स्पर्श को
२)
जब कभी ऐसा होगा..............
समुन्दर की तेज़ लहरें
पूनम के चाँद से मिलने को बेताब होंगी
चाँद भी ज़मीन के कुछ करीब होगा
उस पल............
तू चुपके से मेरी किश्ती पर चले आना
चाँद पर नानी से कह कर
एक आशियाना बनाया है मैंने
३)
जब कभी ऐसा होगा..............
ये आसमान जमीन के करीब होगा
सितारे मेरी छत को छूने लगेंगे
उस पल..................
तू चुपके से मेरे पहलू में चली आना
हाथ बढ़ा कर ये सितारे मैं तोड़ लूँगा
सजा दूंगा फिर तेरी मांग
हमेशा हमेशा के लिए
४)
जब कभी ऐसा होगा..............
तारों की छाँव में तेरी डोली सजी होगी
चाँद जाने को होगा, सूरज की प्रतीक्षा होगी
बिदाई के राग में शहनाई बज रही होगी
उस पल................
ओस बन कर मैं हरी घास पर बिखर जाऊंगा
तू चुपके से नंगे पाँव गुज़र जाना
तेरा मेरा वो अंतिम मिलन होगा
जब कभी ऐसा होगा..............
ये कायनात रुक जायेगी
सांस लेती प्रकृति थम जायेगी
बहती हुयी हवा ठिठक जायेगी
आसमान पर चमकता सूरज अंधा हो जायेगा
पल इक पल को रुक जायेगा
उस पल...............
मैं चुपके से तुझे अपने हाथों में उठा लूंगा
कैद कर लूँगा तेरे मीठे स्पर्श को
२)
जब कभी ऐसा होगा..............
समुन्दर की तेज़ लहरें
पूनम के चाँद से मिलने को बेताब होंगी
चाँद भी ज़मीन के कुछ करीब होगा
उस पल............
तू चुपके से मेरी किश्ती पर चले आना
चाँद पर नानी से कह कर
एक आशियाना बनाया है मैंने
३)
जब कभी ऐसा होगा..............
ये आसमान जमीन के करीब होगा
सितारे मेरी छत को छूने लगेंगे
उस पल..................
तू चुपके से मेरे पहलू में चली आना
हाथ बढ़ा कर ये सितारे मैं तोड़ लूँगा
सजा दूंगा फिर तेरी मांग
हमेशा हमेशा के लिए
४)
जब कभी ऐसा होगा..............
तारों की छाँव में तेरी डोली सजी होगी
चाँद जाने को होगा, सूरज की प्रतीक्षा होगी
बिदाई के राग में शहनाई बज रही होगी
उस पल................
ओस बन कर मैं हरी घास पर बिखर जाऊंगा
तू चुपके से नंगे पाँव गुज़र जाना
तेरा मेरा वो अंतिम मिलन होगा
मंगलवार, 24 मार्च 2009
प्रकृति मेरे कैनवास पर
जब कभी करता हूँ कोशिश
जिंदगी के सफेद खुले कैनवस पर
प्रकृति के मासूम रंग उतारने की
तुम्हारा अक्स उभर आता है
मैं रंग बिरंगे रंगों में
अटक के रह जाता हूँ
टकटकी लगाए देखता रहता हूँ
उन आडी तिरछी रेखाओं को
उसके बदलते रंगों को................
धीरे धीरे मुझे उसमे
अपना अक्स नज़र आने लगता है
एकाकार होकर हमारा अक्स
प्रकृति के रंगो में घुल जाता है
चिर काल से चली आ रही प्रकृति में खो जाता है
मिलन.....
कैसा मिलन
जैसे अनंत का अनंत से
शून्य का शून्य से
धरती का आकाश से
पृथ्वी का भ्रमांड से
सत्य का शिव से
शिव का ब्रम्हा से
लोक का आलोक से
आलोक का परलोक से
जीव का आत्मा से
आत्मा का परमात्मा से
आदि का अंत से
अंत का अनंत से
अनंत का चिर अनंत से
देखो
इन्द्र धनुषी संगों से सजी प्रकृति
जीवन के रंगों से लिपटी
स्वयं मेरे कैनवास पर उतार आई है
जिंदगी के सफेद खुले कैनवस पर
प्रकृति के मासूम रंग उतारने की
तुम्हारा अक्स उभर आता है
मैं रंग बिरंगे रंगों में
अटक के रह जाता हूँ
टकटकी लगाए देखता रहता हूँ
उन आडी तिरछी रेखाओं को
उसके बदलते रंगों को................
धीरे धीरे मुझे उसमे
अपना अक्स नज़र आने लगता है
एकाकार होकर हमारा अक्स
प्रकृति के रंगो में घुल जाता है
चिर काल से चली आ रही प्रकृति में खो जाता है
मिलन.....
कैसा मिलन
जैसे अनंत का अनंत से
शून्य का शून्य से
धरती का आकाश से
पृथ्वी का भ्रमांड से
सत्य का शिव से
शिव का ब्रम्हा से
लोक का आलोक से
आलोक का परलोक से
जीव का आत्मा से
आत्मा का परमात्मा से
आदि का अंत से
अंत का अनंत से
अनंत का चिर अनंत से
देखो
इन्द्र धनुषी संगों से सजी प्रकृति
जीवन के रंगों से लिपटी
स्वयं मेरे कैनवास पर उतार आई है
मंगलवार, 17 मार्च 2009
माँ का आँचल हो गया
गुरु देव पंकज सुबीर जी की विशेष अनुकम्पा से इस ग़ज़ल में कुछ परिवर्तन किये हैं. जिसने इस ग़ज़ल को पहले पढ़ा है वो अगर इसे दुबारा पढेंगे तो समझ जायेंगे की ये ग़ज़ल बहूत ही सुन्दर हो गयी है. इस ग़ज़ल के दोषों को उन्होंने इतनी बारीकी से मुझे समझाया की आज मुझे लग रहा है मैंने ग़ज़ल लेखन की तरफ एक और कदम बढा लिया.ये बात चरित्रार्थ हो गयी "गुरु बिन गत नहीं"
पावनि गंगा का मीठा जल हलाहल हो गया,
शहर के फैलाव से जंगल भी घायल हो गया,
सो गया फिर चैन से जब लौट कर आया यहाँ,
गांव का पीपल ही जैसे मां का आंचल हो गया,
थी जिसे उम्मीद वापस लौट कर वो आएगा,
रेत पर लिखता था तेरा नाम पागल हो गया,
था कोई लोफर हवा के साथ जो उड़ता रहा,
छत मिली मेरी तो वो सावन का बादल हो गया,
कोयला था मैं, पड़ा भट्टी किनारे बेखबर,
छू गया आँखों से तेरी और काजल हो गया,
ओढ़ कर आकाश धरती को बिछाता है वो बस,
सादगी इतनी की हाय मैं तो कायल हो गया,
थी खड़ी पलकें झुकाए हाथ में थाली लिए,
देखते ही देखते मन और श्यामल हो गया,
पावनि गंगा का मीठा जल हलाहल हो गया,
शहर के फैलाव से जंगल भी घायल हो गया,
सो गया फिर चैन से जब लौट कर आया यहाँ,
गांव का पीपल ही जैसे मां का आंचल हो गया,
थी जिसे उम्मीद वापस लौट कर वो आएगा,
रेत पर लिखता था तेरा नाम पागल हो गया,
था कोई लोफर हवा के साथ जो उड़ता रहा,
छत मिली मेरी तो वो सावन का बादल हो गया,
कोयला था मैं, पड़ा भट्टी किनारे बेखबर,
छू गया आँखों से तेरी और काजल हो गया,
ओढ़ कर आकाश धरती को बिछाता है वो बस,
सादगी इतनी की हाय मैं तो कायल हो गया,
थी खड़ी पलकें झुकाए हाथ में थाली लिए,
देखते ही देखते मन और श्यामल हो गया,
बुधवार, 11 मार्च 2009
होली की मंगल कामनाएं
आप सब को होली की मंगल कामनाएं, आप सब के जीवन में ये होली नए नए रंग लेकर आये, आप खुशियों से नाचे, झूमें और प्यार के रंगों से अपना और सबका जीवन भर दें
होली के त्यौहार में, मची हुयी हुडदंग
सारे मिल कर डाल,रहे इक दूजे पर रंग
इक दूजे पर रंग, हुवे सब लाल गुलाबी
मस्ती में झूमें सभी, जैसे मस्त शराबी
कहे "दिगम्बर" शिकवे सारे आज भुला दो
दिल से दिल मिल जाए, ऐसा रंग लगा दो
होली के त्यौहार में, मची हुयी हुडदंग
सारे मिल कर डाल,रहे इक दूजे पर रंग
इक दूजे पर रंग, हुवे सब लाल गुलाबी
मस्ती में झूमें सभी, जैसे मस्त शराबी
कहे "दिगम्बर" शिकवे सारे आज भुला दो
दिल से दिल मिल जाए, ऐसा रंग लगा दो
गुरुवार, 5 मार्च 2009
एहसास
1
चाहता हूँ
मार कर पत्थर
सुराख कर दूं सूरज में
सज़ा लूँ फिर डिबिया भर कर
कतरा कतरा रिस्ती हुई रोशनी
जब ये कायनात अंधी हो जाएगी
मैं जीता रहूँगा
अपनी डिबिया देख कर
2
जलती हुई आग
अपनी हथेली पर सज़ा
अपना ही इम्तिहान लेने को मन करता है
ये मेरा आत्मविश्वास है
या अन्जाना सा दर्द
मचल रहा है
बाहर आने को
3
बहूत दिनों से
मन कुछ उदास है
ढूंड नही पाता
जब उदासी का कारण
और उदास हो जाता है मन
लगता है उदासी भी
गणित के खेल की तरह
जुड़ती नही गुना होती है
चाहता हूँ
मार कर पत्थर
सुराख कर दूं सूरज में
सज़ा लूँ फिर डिबिया भर कर
कतरा कतरा रिस्ती हुई रोशनी
जब ये कायनात अंधी हो जाएगी
मैं जीता रहूँगा
अपनी डिबिया देख कर
2
जलती हुई आग
अपनी हथेली पर सज़ा
अपना ही इम्तिहान लेने को मन करता है
ये मेरा आत्मविश्वास है
या अन्जाना सा दर्द
मचल रहा है
बाहर आने को
3
बहूत दिनों से
मन कुछ उदास है
ढूंड नही पाता
जब उदासी का कारण
और उदास हो जाता है मन
लगता है उदासी भी
गणित के खेल की तरह
जुड़ती नही गुना होती है
गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009
झूमती पुरवाइयां
ब्लॉग जगत के सुपरिचित रचनाकार हमारे गुरु श्री "पंकज सुबीर जी" को देश की सबसे बड़ी साहित्यिक संस्था "भारतीय ज्ञानपीठ" ने अपनी नवलेखन पुरुस्कार योजना के तहत वर्ष 2008 के तीन श्रेष्ठ युवा कथाकारों में सम्मिलित किया है.हम सब के लिए यह गर्व की बात है. पंकज को जी इस बात के लिए बहुत बहुत बधाई.
प्रस्तुत है ये ग़ज़ल पंकज जी के नाम. वैसे आप सब को बता दूं इस ग़ज़ल को गुरुदेव ने आज ही पढने लायक बना कर भेजा है.
गूंजती थीं जिस मुहल्ले में कभी शहनाइयां
दर्द है बिखरा हुवा, बिखरी हुयी तन्हाइयां
कैसा वासंती ये मौसम अब के आया है यहां
कोयलें सहमी हैं और सहमी हुई अमराइयां
हो गए खामोश आधी रात में दीपक सभी
रात भर चलती रहीं इश्राक की पुरवाइयां
सांस पत्थर को है लेते देखना तो देख लो
तुम अजंता के बुतों में नाचती परछाइयां
बस तेरा ही नूर फैला है फिजां में हर तरफ
ये तसव्वुफ जानती हैं झूमती पुरवाइयां
झूठ का रंगीन चेहरा इस कदर छाया हुवा
आईने से मुंह छुपाती हैं यहाँ सच्चाइयां
थाह तेरे दिल की ही बस मिल न पाई है मुझे
यूं तो मैंने नाप लीं सागर की सब गहराईयां
साथ तेरा मिल गया आसान हैं अब रास्ते
थीं वगरना हर कदम पर मुश्किलें कठिनाइयां
(इश्राक - प्रभात, चमक, उषा, तसव्वुफ़ - रहस्य, गूढ़ ज्ञान)
प्रस्तुत है ये ग़ज़ल पंकज जी के नाम. वैसे आप सब को बता दूं इस ग़ज़ल को गुरुदेव ने आज ही पढने लायक बना कर भेजा है.
गूंजती थीं जिस मुहल्ले में कभी शहनाइयां
दर्द है बिखरा हुवा, बिखरी हुयी तन्हाइयां
कैसा वासंती ये मौसम अब के आया है यहां
कोयलें सहमी हैं और सहमी हुई अमराइयां
हो गए खामोश आधी रात में दीपक सभी
रात भर चलती रहीं इश्राक की पुरवाइयां
सांस पत्थर को है लेते देखना तो देख लो
तुम अजंता के बुतों में नाचती परछाइयां
बस तेरा ही नूर फैला है फिजां में हर तरफ
ये तसव्वुफ जानती हैं झूमती पुरवाइयां
झूठ का रंगीन चेहरा इस कदर छाया हुवा
आईने से मुंह छुपाती हैं यहाँ सच्चाइयां
थाह तेरे दिल की ही बस मिल न पाई है मुझे
यूं तो मैंने नाप लीं सागर की सब गहराईयां
साथ तेरा मिल गया आसान हैं अब रास्ते
थीं वगरना हर कदम पर मुश्किलें कठिनाइयां
(इश्राक - प्रभात, चमक, उषा, तसव्वुफ़ - रहस्य, गूढ़ ज्ञान)
शनिवार, 21 फ़रवरी 2009
जिंदगी का गीत हो वो गीत लाजवाब
दिल्ली और देहरादून में खिलती हुवे सूरज के नीचे नर्म सर्दी में गुजारे कुछ पल, गौतम जी से छोटी सी हसीन सी यादगार मुलाक़ात, समीर जी (उड़नतश्तरी वाले) से फ़ोन पर हुयी बात और भी न जाने कितने खूबसूरत लम्हों को समेटे अपने छोटे से शहर दुबई में वापस आने के बाद, पेश है ये ताज़ा ग़ज़ल गौतम जी के नाम ...........
जानता हूँ रख न पायेगा कभी हिसाब
नाप कर जो रौशनी बांटेगा आफताब
यूँ तो सारे गीत होते खूबसूरत
जिंदगी का गीत हो वो गीत लाजवाब
जिसमें कोई दाग न धब्बे पड़े हों
क्यूँ नही फ़िर ढूंढ लें हम ऐसा माहताब
हमने अपने दर्द को कुछ यूँ छुपाया
ओस की बूंदों में पिघलता रहा अज़ाब
यूँ अंगूठा टेक हूँ, बे इल्म हूँ पर
जिंदगी की स्याही से लिक्खी मेरी किताब
पोथियाँ पढता रहा कुछ मिल पाया
ढाई आखर प्रेम से गुलज़ार मेरा ख्वाब
घर मेरा कुछ यूँ सजा आने से तेरे
रात रानी खिल उठी खिलता रहा गुलाब
जानता हूँ रख न पायेगा कभी हिसाब
नाप कर जो रौशनी बांटेगा आफताब
यूँ तो सारे गीत होते खूबसूरत
जिंदगी का गीत हो वो गीत लाजवाब
जिसमें कोई दाग न धब्बे पड़े हों
क्यूँ नही फ़िर ढूंढ लें हम ऐसा माहताब
हमने अपने दर्द को कुछ यूँ छुपाया
ओस की बूंदों में पिघलता रहा अज़ाब
यूँ अंगूठा टेक हूँ, बे इल्म हूँ पर
जिंदगी की स्याही से लिक्खी मेरी किताब
पोथियाँ पढता रहा कुछ मिल पाया
ढाई आखर प्रेम से गुलज़ार मेरा ख्वाब
घर मेरा कुछ यूँ सजा आने से तेरे
रात रानी खिल उठी खिलता रहा गुलाब
गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009
साए में संगीन के फूले फले
आज से पूरे एक सप्ताह के लिए छुट्टी ले रहा हूँ, दुबई की भागमभाग जिंदगी से दूर वतन की खुशबू के बीच, दिल्ली की सर्दी का आनंद लेने, हो सका तो देहरादून गौतम जी से मुलाक़ात करने ..........
जाते जाते पेश है एक ग़ज़ल, प्रकाश बादल जी के कहे अनुसार मीटर की परवाह किए बगैर, अच्छी बुरी तो आप ही जाने........
अब नही उठते हैं दिल में ज़लज़ले
पस्त हो गए हमारे होंसले
लाल पत्ते, लाल बाली गेहूं की
साए में संगीन के फूले फले
मिल गयी है न्याय की कुर्सी उसे
कर रहा अपने हक़ में फैंसले
थक गया पर साथ चलता रहूँगा
दूर तक जो साथ तू मेरे चले
रात गयी चाँद क्यों छिपता नही
सोच रहा सूरज पीपल तले
याद माँ की आ गयी विदेश में
दफअतन आँख से आंसू ढले
छाछ भी पीते हैं फूंक मार कर
दूध से हैं होठ जिन के जले
जिंदगी भर लौट कर न जाऊँगा
आज मेरा रास्ता बस रोक ले
गोलियों की बात ही समझेगे वो
गोलियों से कर रहे जो फैंसले
रेत की दीवार से ढह जायेंगे
जिस्म जिनके हो गए खोखले
जाते जाते पेश है एक ग़ज़ल, प्रकाश बादल जी के कहे अनुसार मीटर की परवाह किए बगैर, अच्छी बुरी तो आप ही जाने........
अब नही उठते हैं दिल में ज़लज़ले
पस्त हो गए हमारे होंसले
लाल पत्ते, लाल बाली गेहूं की
साए में संगीन के फूले फले
मिल गयी है न्याय की कुर्सी उसे
कर रहा अपने हक़ में फैंसले
थक गया पर साथ चलता रहूँगा
दूर तक जो साथ तू मेरे चले
रात गयी चाँद क्यों छिपता नही
सोच रहा सूरज पीपल तले
याद माँ की आ गयी विदेश में
दफअतन आँख से आंसू ढले
छाछ भी पीते हैं फूंक मार कर
दूध से हैं होठ जिन के जले
जिंदगी भर लौट कर न जाऊँगा
आज मेरा रास्ता बस रोक ले
गोलियों की बात ही समझेगे वो
गोलियों से कर रहे जो फैंसले
रेत की दीवार से ढह जायेंगे
जिस्म जिनके हो गए खोखले
रविवार, 8 फ़रवरी 2009
ज़ख्म हमेशा खिले हुवे
टूटी चप्पल, चिथड़े कपड़े, हाथ पैर हैं छिले हुवे
खिचडी दाड़ी, रीति आँखें, ज़ख्म हमेशा खिले हुवे
रोटी पानी, कपड़े लत्ते, बिखरा घर बिखरा आँगन
बिखरा जीवन, टूटे सपने, होठों सभी के सिले हुवे
झूठे रिश्ते, लोग पराये, मैं सच्चा झूठी दुनिया
ख़त्म हुवे सब शिकवे सारे, ख़त्म ये सारे गिले हुवे
नियम खोखले, बातें कोरी, कोरा मत, कोरा गर्जन
कोरी वाणी, कोरा दर्शन, नींव सभी के हिले हुवे
गुंडा गर्दी गली मोहल्ले,जिसकी लाठी उसकी भैंस
लूट मची है प्रजा तंत्र में, मानुस सारे पिले हुवे
मार पड़ी कमजोरों पर, चाहे कोई मज़हब हो
मंदिर मस्जिद गिरजे लगता आपस में हैं मिले हुवे
खिचडी दाड़ी, रीति आँखें, ज़ख्म हमेशा खिले हुवे
रोटी पानी, कपड़े लत्ते, बिखरा घर बिखरा आँगन
बिखरा जीवन, टूटे सपने, होठों सभी के सिले हुवे
झूठे रिश्ते, लोग पराये, मैं सच्चा झूठी दुनिया
ख़त्म हुवे सब शिकवे सारे, ख़त्म ये सारे गिले हुवे
नियम खोखले, बातें कोरी, कोरा मत, कोरा गर्जन
कोरी वाणी, कोरा दर्शन, नींव सभी के हिले हुवे
गुंडा गर्दी गली मोहल्ले,जिसकी लाठी उसकी भैंस
लूट मची है प्रजा तंत्र में, मानुस सारे पिले हुवे
मार पड़ी कमजोरों पर, चाहे कोई मज़हब हो
मंदिर मस्जिद गिरजे लगता आपस में हैं मिले हुवे
सोमवार, 2 फ़रवरी 2009
साँस का बस खेल है जीवन मरन
सूर्य से पहले है जिसका आगमन
स्वयं को पाने का जो करता सृजन
छू वही सकता हैं ऊंचे शिखर को
कर गुज़रने की लगी हो जब लगन
कौन सी बाधाएं रस्ता रोक लेंगी
जल रही हो मुक्ति की दिल में अगन
स्वयं को बाती बना तिल तिल जले
जिंदगी बन जायेगी उसकी हवन
मुक्त कर दो, तोड़ दो बंधन पुनः
किस के रोके रुका है बहता पवन
काल की सीमाओं में बंधा हुवा
साँस का बस खेल है जीवन मरन
सत्य तो बस एक है "इदं न मम"
देह वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी गगन
स्वयं को पाने का जो करता सृजन
छू वही सकता हैं ऊंचे शिखर को
कर गुज़रने की लगी हो जब लगन
कौन सी बाधाएं रस्ता रोक लेंगी
जल रही हो मुक्ति की दिल में अगन
स्वयं को बाती बना तिल तिल जले
जिंदगी बन जायेगी उसकी हवन
मुक्त कर दो, तोड़ दो बंधन पुनः
किस के रोके रुका है बहता पवन
काल की सीमाओं में बंधा हुवा
साँस का बस खेल है जीवन मरन
सत्य तो बस एक है "इदं न मम"
देह वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी गगन
गुरुवार, 29 जनवरी 2009
सिन्दूर बनके सजता हूँ
खुशी या गम हो तेरे आंसुओं में ढलता हूँ
तुझे ख़बर है तेरी चश्मे-नम में रहता हूँ
क्या हुवा जो तेरा हाथ भी न छू सका
तेरे माथे की सुर्ख चांदनी में जलता हूँ
है और बात तेरे दिल से हूँ मैं दूर बहुत
तुम्हारी मांग में सिन्दूर बनके सजता हूँ
मैंने माना तेरी खुशियों पर इख्तियार नही
तेरे हिस्से का गम खुशी खुशी सहता हूँ
============================
तेरा ख्याल मेरे दिल से क्यों नही जाता
जब कभी सामने आती हो कह नही पाता
तमाम बातें यूँ तो दिल में मेरे रहती हैं
तुम्हारे सामने कुछ याद ही नही आता
तुझे ख़बर है तेरी चश्मे-नम में रहता हूँ
क्या हुवा जो तेरा हाथ भी न छू सका
तेरे माथे की सुर्ख चांदनी में जलता हूँ
है और बात तेरे दिल से हूँ मैं दूर बहुत
तुम्हारी मांग में सिन्दूर बनके सजता हूँ
मैंने माना तेरी खुशियों पर इख्तियार नही
तेरे हिस्से का गम खुशी खुशी सहता हूँ
============================
तेरा ख्याल मेरे दिल से क्यों नही जाता
जब कभी सामने आती हो कह नही पाता
तमाम बातें यूँ तो दिल में मेरे रहती हैं
तुम्हारे सामने कुछ याद ही नही आता
रविवार, 25 जनवरी 2009
ईंट गारे की जगह आदमी जड़े हैं
हमारे पाव फ़िर ज़मीन में गड़े हैं
हम पेड़ जैसे रास्तों में खड़े हैं
आदतें आज भी संघर्ष की छोड़ी नही
भूख और प्यास से अभी अभी लड़े हैं
सच्च तो ये है इस खूबसूरत ताज में
ईंट गारे की जगह आदमी जड़े हैं
भूख और प्यास के डर से खुदा भी
झोंपडे छोड़ कर मंदिरों में पड़े हैं
एक सच्चाई है इन खोखले जिस्मों की
छोटे से ज़ख्म मौत आने तक सड़े हैं
होठ सूखे, धंसी आँखें चिथडा सा बदन
जिस्म जैसे किसी पतझर में पत्ते झडे हैं
वो प्यासा था या कोई चोर जो गुजरा यहाँ
तमाम रास्तों में खाली खाली घड़े हैं
हम पेड़ जैसे रास्तों में खड़े हैं
आदतें आज भी संघर्ष की छोड़ी नही
भूख और प्यास से अभी अभी लड़े हैं
सच्च तो ये है इस खूबसूरत ताज में
ईंट गारे की जगह आदमी जड़े हैं
भूख और प्यास के डर से खुदा भी
झोंपडे छोड़ कर मंदिरों में पड़े हैं
एक सच्चाई है इन खोखले जिस्मों की
छोटे से ज़ख्म मौत आने तक सड़े हैं
होठ सूखे, धंसी आँखें चिथडा सा बदन
जिस्म जैसे किसी पतझर में पत्ते झडे हैं
वो प्यासा था या कोई चोर जो गुजरा यहाँ
तमाम रास्तों में खाली खाली घड़े हैं
सोमवार, 19 जनवरी 2009
जिंदगी की रेल है
इस ग़ज़ल के पहले २ शेर मैंने १० साल पहले लिखे थे और ये ग़ज़ल मेरे दिल के बहोत करीब है. कुछ और शेर लिख कर मैंने इसे गुरुदेव पंकज जी के सुपुर्द कर दिया. ये ग़ज़ल ठीक होने के बाद आपकी नज़र है.
आदरणीय पंकज जी का बहुत बहुत आभार
उमर की पटरियों पर जिंदगी की रेल है
ये मरना और जीना तो समय का खेल है
नहीं जब तक मेहरबां मौत हम पर तब तलक
हमारी रूह है और जिस्म की ये जेल है
रुई का जिस्म है मिट जायेगा कुछ देर में
दिये की धड़कनों में जल रहा बस तेल है
रुकेगी सांस जिस पल बंद होंगीं धड़कनें
वही तो आत्मा परमात्मा का मेल है
तिरा मासूम चेहरा जुल्फ काली और घनी
के जैसे चांद का संग बादलों के खेल है
आदरणीय पंकज जी का बहुत बहुत आभार
उमर की पटरियों पर जिंदगी की रेल है
ये मरना और जीना तो समय का खेल है
नहीं जब तक मेहरबां मौत हम पर तब तलक
हमारी रूह है और जिस्म की ये जेल है
रुई का जिस्म है मिट जायेगा कुछ देर में
दिये की धड़कनों में जल रहा बस तेल है
रुकेगी सांस जिस पल बंद होंगीं धड़कनें
वही तो आत्मा परमात्मा का मेल है
तिरा मासूम चेहरा जुल्फ काली और घनी
के जैसे चांद का संग बादलों के खेल है
मंगलवार, 13 जनवरी 2009
ग़ज़ल
बहुत दिनों से बहुत से blogs पर ग़ज़ल की तकनीकी जानकारी पढ़ रहा था और कोशिश कर रहा था सीखने की, पर अगर पढ़ कर ही सब जानकारी मिल जाए तो गुरु का महत्त्व नही रहता. फ़िर एक बार पंकज जी ने मेरी ग़ज़ल को पढा और कुछ सुधार बताये उसके बाद वो ग़ज़ल और भी खूबसूरत ही गयी.
पंकज सुबीर जी को मैंने अपनी ये ग़ज़ल भेजी जिसको उन्होंने दुरुस्त किया. शायद उनको मेरी गज़लों में कुछ तो नज़र आया ही होगा जो मेरी ग़ज़लें उनकी नज़रे-करम हुयी. आपके सामने दोनों ग़ज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ. पंकज जी का आभारी हूँ जो उन्होंने इस में चार चाँद लगा दिए
मेरी ग़ज़ल
फ़िर जख्म पर मरहम लगाने क्यूँ नही आते
तुम गीत लब से गुनगुनाने क्यूँ नही आते
मैं सितारे आसमाँ से छीन कर ले आउंगा
तुम होंसला मेरा बढ़ाने क्यूँ नही आते
मुद्दतों से ढ़ो रहा हूँ लाश कन्धों पर लिये
तुम गिद्ध हो ये मॉस खाने क्यूँ नही आते
मैं उबलता दूध हूँ गिर जाउंगा कुछ देर में
तुम छींट पानी का लगाने क्यूँ नही आते
मुट्ठियों में बंद है बरसात का बादल मेरी
हिम्मत अगर है घर जलाने क्यूँ नही आते
भीगी हुयी सी रात है महका हुवा है दिन
तुम आँख में सपने सजाने क्यूँ नही आते
पंकज जी द्वारा ठीक करने के बाद वही ग़ज़ल
जख्म पर मरहम लगाने क्यों नहीं आते
गीत कोई गुनगुनाने क्यों नहीं आते
आसमां से चांद तारे छीन लाऊंगा
हौसला मेरा बढ़ाने क्यों नहीं आते
लाश अपनी ढो रहा हूं कब से कांधे पर
गिद्ध हो तुम मांस खाने क्यों नहीं आते
मैं उबलता दूध बहने की हदों पर हूं
छींट पानी की लगाने क्यों नहीं आते
बंद है मुटृठी में मेरी सावनी बादल
है जो हिम्मत घर जलाने क्यों नहीं आते
रात भीगी सी है और महका हुआ दिन है
ख्वाब आंखों में सजाने क्यों नहीं आते
पंकज सुबीर जी को मैंने अपनी ये ग़ज़ल भेजी जिसको उन्होंने दुरुस्त किया. शायद उनको मेरी गज़लों में कुछ तो नज़र आया ही होगा जो मेरी ग़ज़लें उनकी नज़रे-करम हुयी. आपके सामने दोनों ग़ज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ. पंकज जी का आभारी हूँ जो उन्होंने इस में चार चाँद लगा दिए
मेरी ग़ज़ल
फ़िर जख्म पर मरहम लगाने क्यूँ नही आते
तुम गीत लब से गुनगुनाने क्यूँ नही आते
मैं सितारे आसमाँ से छीन कर ले आउंगा
तुम होंसला मेरा बढ़ाने क्यूँ नही आते
मुद्दतों से ढ़ो रहा हूँ लाश कन्धों पर लिये
तुम गिद्ध हो ये मॉस खाने क्यूँ नही आते
मैं उबलता दूध हूँ गिर जाउंगा कुछ देर में
तुम छींट पानी का लगाने क्यूँ नही आते
मुट्ठियों में बंद है बरसात का बादल मेरी
हिम्मत अगर है घर जलाने क्यूँ नही आते
भीगी हुयी सी रात है महका हुवा है दिन
तुम आँख में सपने सजाने क्यूँ नही आते
पंकज जी द्वारा ठीक करने के बाद वही ग़ज़ल
जख्म पर मरहम लगाने क्यों नहीं आते
गीत कोई गुनगुनाने क्यों नहीं आते
आसमां से चांद तारे छीन लाऊंगा
हौसला मेरा बढ़ाने क्यों नहीं आते
लाश अपनी ढो रहा हूं कब से कांधे पर
गिद्ध हो तुम मांस खाने क्यों नहीं आते
मैं उबलता दूध बहने की हदों पर हूं
छींट पानी की लगाने क्यों नहीं आते
बंद है मुटृठी में मेरी सावनी बादल
है जो हिम्मत घर जलाने क्यों नहीं आते
रात भीगी सी है और महका हुआ दिन है
ख्वाब आंखों में सजाने क्यों नहीं आते
शनिवार, 10 जनवरी 2009
इंकलाबी हो गए
लाल पीले फ़िर गुलाबी हो गए
इश्क मैं हम भी शराबी हो गए
ताश के पत्तों का महल बुन लिया
और फ़िर हम भी नवाबी हो गए
लहू से लिक्खी थी इक ताज़ा ग़ज़ल
कलम से हम इंकलाबी हो गए
जब से तुम ने डायरी में रख लिये
फूल जीते जी किताबी हो गए
हाथ मेरे सर से क्या उसका उठा
शहर में खाना खराबी हो गए
ज़िक्र छेड़ा था अभी उनके सितम का
कहते हैं वो हम हिसाबी हो गए
इश्क मैं हम भी शराबी हो गए
ताश के पत्तों का महल बुन लिया
और फ़िर हम भी नवाबी हो गए
लहू से लिक्खी थी इक ताज़ा ग़ज़ल
कलम से हम इंकलाबी हो गए
जब से तुम ने डायरी में रख लिये
फूल जीते जी किताबी हो गए
हाथ मेरे सर से क्या उसका उठा
शहर में खाना खराबी हो गए
ज़िक्र छेड़ा था अभी उनके सितम का
कहते हैं वो हम हिसाबी हो गए
मंगलवार, 6 जनवरी 2009
बन सकें जो लक्ष्य प्रेरित बाण हम
बन सकें जो लक्ष्य प्रेरित बाण हम
कर सकें जग का कभी जो त्राण हम
सार्थक हो जाएगा जीवन हमारा
कर सकें युग का पुनः निर्माण हम
कौन जाने समय में है क्या लिखा
क्या पता ख़ुद कृष्ण हों मेरे सखा
स्वयं का तर्पण करो कुरुक्षेत्र में
यूँ जलो ज्यों दीप की अग्नी शिखा
हृदय में अग्नी सदा जलती रहे
चिर-विजय की कामना पलती रहे
तेरे उपवन में खिले हों पुष्प सारे
स्नेह की सरिता प्रबल बहती रहे
वंदना है माँ तुम्हारे चरण में
है समर्पित शीश तेरे हवन में
पार्थ में बन जाऊँ यह वरदान दो
धनुष की टंकार गूंजे गगन में
शत्रु को हम ठीक से फ़िर जान लें
स्वयं के अस्तित्व को भी मान लें
फ़िर अतीत को नही विस्म्रण करें
संगठन की शक्ति को पहचान लें
कर सकें जग का कभी जो त्राण हम
सार्थक हो जाएगा जीवन हमारा
कर सकें युग का पुनः निर्माण हम
कौन जाने समय में है क्या लिखा
क्या पता ख़ुद कृष्ण हों मेरे सखा
स्वयं का तर्पण करो कुरुक्षेत्र में
यूँ जलो ज्यों दीप की अग्नी शिखा
हृदय में अग्नी सदा जलती रहे
चिर-विजय की कामना पलती रहे
तेरे उपवन में खिले हों पुष्प सारे
स्नेह की सरिता प्रबल बहती रहे
वंदना है माँ तुम्हारे चरण में
है समर्पित शीश तेरे हवन में
पार्थ में बन जाऊँ यह वरदान दो
धनुष की टंकार गूंजे गगन में
शत्रु को हम ठीक से फ़िर जान लें
स्वयं के अस्तित्व को भी मान लें
फ़िर अतीत को नही विस्म्रण करें
संगठन की शक्ति को पहचान लें
रविवार, 4 जनवरी 2009
ज़िन्दगी बनवास है
हवस है कैसी, नही बुझती तुम्हारी प्यास है
अपने हिस्से का समुन्दर, तो तुम्हारे पास है
साँस लेती हैं दीवारें, आंख हैं ये खिड़कियाँ
इस शहर के खंडहरों से, बोलता इतिहास है
लाल है पत्ते यहाँ सब, लाल उगती घास है
सोई हुयी है दास्ताँ, बिखरा हुवा विशवास है
मेरे घर के पास से, गुजरा था तेरा काफिला
घर मेरा उस रोज़ से, खिलता हुवा मधुमास है
मुद्दतों से लौट कर, क्यूँ घर न आए तुम मेरे
यूँ तो रहता हूँ मैं घर, पर ज़िन्दगी बनवास है
तुझसे पहले आ गयी थी, तेरे आने की ख़बर
खिल उठी खेतों मैं सरसों, छा गया उल्लास है
अपने हिस्से का समुन्दर, तो तुम्हारे पास है
साँस लेती हैं दीवारें, आंख हैं ये खिड़कियाँ
इस शहर के खंडहरों से, बोलता इतिहास है
लाल है पत्ते यहाँ सब, लाल उगती घास है
सोई हुयी है दास्ताँ, बिखरा हुवा विशवास है
मेरे घर के पास से, गुजरा था तेरा काफिला
घर मेरा उस रोज़ से, खिलता हुवा मधुमास है
मुद्दतों से लौट कर, क्यूँ घर न आए तुम मेरे
यूँ तो रहता हूँ मैं घर, पर ज़िन्दगी बनवास है
तुझसे पहले आ गयी थी, तेरे आने की ख़बर
खिल उठी खेतों मैं सरसों, छा गया उल्लास है
सदस्यता लें
संदेश (Atom)