स्वप्न मेरे: मार्च 2009

रविवार, 29 मार्च 2009

जब कभी ऐसा होगा.......

१)

जब कभी ऐसा होगा..............

ये कायनात रुक जायेगी
सांस लेती प्रकृति थम जायेगी
बहती हुयी हवा ठिठक जायेगी
आसमान पर चमकता सूरज अंधा हो जायेगा
पल इक पल को रुक जायेगा
उस पल...............
मैं चुपके से तुझे अपने हाथों में उठा लूंगा
कैद कर लूँगा तेरे मीठे स्पर्श को

२)

जब कभी ऐसा होगा..............

समुन्दर की तेज़ लहरें
पूनम के चाँद से मिलने को बेताब होंगी
चाँद भी ज़मीन के कुछ करीब होगा
उस पल............
तू चुपके से मेरी किश्ती पर चले आना
चाँद पर नानी से कह कर
एक आशियाना बनाया है मैंने

३)

जब कभी ऐसा होगा..............

ये आसमान जमीन के करीब होगा
सितारे मेरी छत को छूने लगेंगे
उस पल..................
तू चुपके से मेरे पहलू में चली आना
हाथ बढ़ा कर ये सितारे मैं तोड़ लूँगा
सजा दूंगा फिर तेरी मांग
हमेशा हमेशा के लिए

४)

जब कभी ऐसा होगा..............

तारों की छाँव में तेरी डोली सजी होगी
चाँद जाने को होगा, सूरज की प्रतीक्षा होगी
बिदाई के राग में शहनाई बज रही होगी
उस पल................
ओस बन कर मैं हरी घास पर बिखर जाऊंगा
तू चुपके से नंगे पाँव गुज़र जाना
तेरा मेरा वो अंतिम मिलन होगा

मंगलवार, 24 मार्च 2009

प्रकृति मेरे कैनवास पर

जब कभी करता हूँ कोशिश
जिंदगी के सफेद खुले कैनवस पर
प्रकृति के मासूम रंग उतारने की
तुम्हारा अक्स उभर आता है
मैं रंग बिरंगे रंगों में
अटक के रह जाता हूँ
टकटकी लगाए देखता रहता हूँ
उन आडी तिरछी रेखाओं को
उसके बदलते रंगों को................
धीरे धीरे मुझे उसमे
अपना अक्स नज़र आने लगता है
एकाकार होकर हमारा अक्स
प्रकृति के रंगो में घुल जाता है
चिर काल से चली आ रही प्रकृति में खो जाता है
मिलन.....
कैसा मिलन
जैसे अनंत का अनंत से
शून्य का शून्य से
धरती का आकाश से
पृथ्वी का भ्रमांड से
सत्य का शिव से
शिव का ब्रम्हा से
लोक का आलोक से
आलोक का परलोक से
जीव का आत्मा से
आत्मा का परमात्मा से
आदि का अंत से
अंत का अनंत से
अनंत का चिर अनंत से
देखो
इन्द्र धनुषी संगों से सजी प्रकृति
जीवन के रंगों से लिपटी
स्वयं मेरे कैनवास पर उतार आई है

मंगलवार, 17 मार्च 2009

माँ का आँचल हो गया

गुरु देव पंकज सुबीर जी की विशेष अनुकम्पा से इस ग़ज़ल में कुछ परिवर्तन किये हैं. जिसने इस ग़ज़ल को पहले पढ़ा है वो अगर इसे दुबारा पढेंगे तो समझ जायेंगे की ये ग़ज़ल बहूत ही सुन्दर हो गयी है. इस ग़ज़ल के दोषों को उन्होंने इतनी बारीकी से मुझे समझाया की आज मुझे लग रहा है मैंने ग़ज़ल लेखन की तरफ एक और कदम बढा लिया.ये बात चरित्रार्थ हो गयी "गुरु बिन गत नहीं"


पावनि गंगा का मीठा जल हलाहल हो गया,
शहर के फैलाव से जंगल भी घायल हो गया,

सो गया फिर चैन से जब लौट कर आया यहाँ,
गांव का पीपल ही जैसे मां का आंचल हो गया,

थी जिसे उम्मीद वापस लौट कर वो आएगा,
रेत पर लिखता था तेरा नाम पागल हो गया,

था कोई लोफर हवा के साथ जो उड़ता रहा,
छत मिली मेरी तो वो सावन का बादल हो गया,

कोयला था मैं, पड़ा भट्टी किनारे बेखबर,
छू गया आँखों से तेरी और काजल हो गया,

ओढ़ कर आकाश धरती को बिछाता है वो बस,
सादगी इतनी की हाय मैं तो कायल हो गया,

थी खड़ी पलकें झुकाए हाथ में थाली लिए,
देखते ही देखते मन और श्यामल हो गया,

बुधवार, 11 मार्च 2009

होली की मंगल कामनाएं

आप सब को होली की मंगल कामनाएं, आप सब के जीवन में ये होली नए नए रंग लेकर आये, आप खुशियों से नाचे, झूमें और प्यार के रंगों से अपना और सबका जीवन भर दें


होली के त्यौहार में, मची हुयी हुडदंग
सारे मिल कर डाल,रहे इक दूजे पर रंग
इक दूजे पर रंग, हुवे सब लाल गुलाबी
मस्ती में झूमें सभी, जैसे मस्त शराबी
कहे "दिगम्बर" शिकवे सारे आज भुला दो
दिल से दिल मिल जाए, ऐसा रंग लगा दो

गुरुवार, 5 मार्च 2009

एहसास

1

चाहता हूँ
मार कर पत्थर
सुराख कर दूं सूरज में
सज़ा लूँ फिर डिबिया भर कर
कतरा कतरा रिस्ती हुई रोशनी
जब ये कायनात अंधी हो जाएगी
मैं जीता रहूँगा
अपनी डिबिया देख कर

2

जलती हुई आग
अपनी हथेली पर सज़ा
अपना ही इम्तिहान लेने को मन करता है
ये मेरा आत्मविश्वास है
या अन्जाना सा दर्द
मचल रहा है
बाहर आने को

3

बहूत दिनों से
मन कुछ उदास है
ढूंड नही पाता
जब उदासी का कारण
और उदास हो जाता है मन
लगता है उदासी भी
गणित के खेल की तरह
जुड़ती नही गुना होती है