सोमवार, 20 दिसंबर 2010
अधूरा सत्य
साथियो ये मेरी इस साल कि अंतिम रचना है ... २३ दिसंबर से १ जनवरी तक दिल्ली, फरीदाबाद की सर्दी का मज़ा लूटूँगा ... आप सब को नया साल बहुत बहुत मुबारक ...
तुम्हारे कहने भर से क्यों मान लूं
मैं झूठ बोलता हूँ
माना कुछ बातें सच नही होतीं
पर वो झूठ भी तो नहीं होतीं
मेरे बोले बहुत से सत्य
तुमने पूर्णतः सत्य नहीं माने
जबकि तुम्हारा अन्तः-करण यही चाहता है
कुछ अधूरे सत्य स्थापित हैं इतिहास में
अधूरे झूठ की तरह
क्या इतिहास बदलने वाले झूठ पूर्णतः झूठ हि माने जाएँगे
क्या सत्य मान कर बोले गये झूठ
झूठ हि कहलाएँगे
क्या अश्वथामा की मौत पर
युधिष्ठर से बुलवाया गया सत्य
सत्य की आड़ में बोला गया झूठ था
या झूठ की दहलीज़ पर खड़े हो कर बोला गया सत्य …
धर्म की स्थापना के लिए बोला गया झूठ
या सत्य की अवमानना को बोला गया सत्य …
क्या ये सत्य नही
प्रकाश के आने पर अंधकार लुप्त हो जाता है
और इस बात को तुम क्या कहोगी
अंधकार बढ़ते बढ़ते प्रकाश को लील लेता है
फिर सत्य क्या है और झूठ क्या
ये जीवन जो माया है
या माया जो जीवन निर्धारित करती है
जैसे कुछ अधूरे सत्य स्थापित हैं इतिहास में
ऐसे अधूरे सत्य मैं तुमसे बोलता हूँ
जिन्हे तुम झूठ समझती हो और मुझे ...... झूठा
वैसे तुमने तो आज तक
इस पूर्णतः सत्य को भी सत्य कब माना
जब मैने तुमसे कहा था
जब कभी मैं तुम्हें देखता हूँ
तुम्हारा सादगी भरा
पलकें झुकाए
पूजा की थाली लिए
गुलाबी साड़ी में लिपटा रूप
मेरे सामने आ जाता है...
जबकि तुम जानती हो
एक यही सत्य मेरे जीवन का सबसे बड़ा सत्य है
और तुम्हारे लिए ...
.....
.....
झूठ-मूठ हि बोला झूठ
सोमवार, 13 दिसंबर 2010
गुलाबी ख्वाब
रात भर
उनिंदी सी रात ओढ़े
जागती आँखों ने
हसीन ख्वाब जोड़े
सुबह की आहट से पहले
छोड़ आया हूँ वो ख्वाब
तुम्हारे तकिये तले
अब जब कभी
कच्ची धूप की पहली किरण
तुम्हारी पलकों पे दस्तक देगी
तकिये के नीचे से सरक आये मेरे ख्वाब
तुम्हारी आँखों में उतर जाएँगे
तुम हौले से अपनी नज़रें उठाना
नाज़ुक हैं मेरे ख्वाब कहीं बिखर न जाएँ
उनिंदी सी रात ओढ़े
जागती आँखों ने
हसीन ख्वाब जोड़े
सुबह की आहट से पहले
छोड़ आया हूँ वो ख्वाब
तुम्हारे तकिये तले
अब जब कभी
कच्ची धूप की पहली किरण
तुम्हारी पलकों पे दस्तक देगी
तकिये के नीचे से सरक आये मेरे ख्वाब
तुम्हारी आँखों में उतर जाएँगे
तुम हौले से अपनी नज़रें उठाना
नाज़ुक हैं मेरे ख्वाब कहीं बिखर न जाएँ
रविवार, 5 दिसंबर 2010
नीला पुलोवर
याद है जाड़े कि वो रात
दूर तक फैला सन्नाटा
ज़मीन तक पहुँचने से पहले
ख़त्म होती लेम्प पोस्ट कि पीली रौशनी
कितना कस के लपेटा था साड़ी का पल्लू
हमेशा कि तरह उस रात भी
तुमसे दस कदम दूरी पर था मैं
फिर अचानक तुम रुकीं और मुड़ के देखा
सूखे पत्ते सी कांप रहीं थी तुम
वो रात शायद अब तक की सबसे ठंडी रात थी
और मेरी जिंदगी की सबसे हसीन रात...
कितना खिल रहा था मेरा नीला पुलोवर तुम्हारे ऊपर
जैसे आसमानी चादर ने अपनी बाहों में समेट लिया हो
वक़्त ठहर गया था मेरे लिए उस रात...
.....
.....
फिर अचानक "शुक्रिया" का संबोधन
और बंद दरवाज़े के पीछे से आती हसीं कि आवाजें
तुम भी तो होठ दबा कर वापस भाग गयीं थीं उस पल
पता है उस पुलोवर में
जो तुमने उस रात पहना था
कुछ बाल धंस गए थे तुम्हारे
मुद्दतों तक उन नर्म रेशमी बालों कि छुवन
तेरी बाँहों कि तरह मेरी गर्दन से लिपटी रहीं
पर आज
जबकि तू मेरे साथ नहीं
(और ऐसा भी नही है कि मैं जानता नही था कि अपना साथ संभव नही)
पता नही क्यों
उन बालों कि चुभन सह नही पाता
दिन भर उन बालों को नोचता हूँ
उन्हें निकालने कि कोशिश में लहू-लुहान होता हूँ
पर रात होते होते
फिर से उग आता है तेरे बालों का जंगल
रोज़ का ये सिलसिला
ख़त्म नही हो पाता
और वो नीला पुलोवर
चाह कर भी छोड़ा नही जाता ...
दूर तक फैला सन्नाटा
ज़मीन तक पहुँचने से पहले
ख़त्म होती लेम्प पोस्ट कि पीली रौशनी
कितना कस के लपेटा था साड़ी का पल्लू
हमेशा कि तरह उस रात भी
तुमसे दस कदम दूरी पर था मैं
फिर अचानक तुम रुकीं और मुड़ के देखा
सूखे पत्ते सी कांप रहीं थी तुम
वो रात शायद अब तक की सबसे ठंडी रात थी
और मेरी जिंदगी की सबसे हसीन रात...
कितना खिल रहा था मेरा नीला पुलोवर तुम्हारे ऊपर
जैसे आसमानी चादर ने अपनी बाहों में समेट लिया हो
वक़्त ठहर गया था मेरे लिए उस रात...
.....
.....
फिर अचानक "शुक्रिया" का संबोधन
और बंद दरवाज़े के पीछे से आती हसीं कि आवाजें
तुम भी तो होठ दबा कर वापस भाग गयीं थीं उस पल
पता है उस पुलोवर में
जो तुमने उस रात पहना था
कुछ बाल धंस गए थे तुम्हारे
मुद्दतों तक उन नर्म रेशमी बालों कि छुवन
तेरी बाँहों कि तरह मेरी गर्दन से लिपटी रहीं
पर आज
जबकि तू मेरे साथ नहीं
(और ऐसा भी नही है कि मैं जानता नही था कि अपना साथ संभव नही)
पता नही क्यों
उन बालों कि चुभन सह नही पाता
दिन भर उन बालों को नोचता हूँ
उन्हें निकालने कि कोशिश में लहू-लुहान होता हूँ
पर रात होते होते
फिर से उग आता है तेरे बालों का जंगल
रोज़ का ये सिलसिला
ख़त्म नही हो पाता
और वो नीला पुलोवर
चाह कर भी छोड़ा नही जाता ...
शुक्रवार, 26 नवंबर 2010
ख़बर ये आ रही है वादियों में सर्द है मौसम ...
ख़ुदा धरती को अपने नूर से जब जब सजाता है
दिशाएँ गीत गाती हैं गगन ये मुस्कुराता है
ख़बर ये आ रही है वादियों में सर्द है मौसम
रज़ाई में छुपा सूरज अभी तक कुनमुनाता है
मुनादी हो रही है चाँदनी से रुत बदलने की
गुलाबी शाल ओढ़े आसमाँ पे चाँद आता है
पहाड़ों पर नज़र आती है फिर से रूइ की चादर
हवा करती है सरगोशी बदन ये काँप जाता है
फजाओं में महकती है तिरे एहसास की खुशबू
हवा की पालकी में बैठ कर मन गुनगुनाता है
झुकी पलकें खुले गेसू दुपट्टा आसमानी सा
तुझे बाहों के घेरे में लिए मन गीत गाता है
दिशाएँ गीत गाती हैं गगन ये मुस्कुराता है
ख़बर ये आ रही है वादियों में सर्द है मौसम
रज़ाई में छुपा सूरज अभी तक कुनमुनाता है
मुनादी हो रही है चाँदनी से रुत बदलने की
गुलाबी शाल ओढ़े आसमाँ पे चाँद आता है
पहाड़ों पर नज़र आती है फिर से रूइ की चादर
हवा करती है सरगोशी बदन ये काँप जाता है
फजाओं में महकती है तिरे एहसास की खुशबू
हवा की पालकी में बैठ कर मन गुनगुनाता है
झुकी पलकें खुले गेसू दुपट्टा आसमानी सा
तुझे बाहों के घेरे में लिए मन गीत गाता है
शनिवार, 20 नवंबर 2010
वो दराजों में पड़ी कुछ पर्चियाँ
मुफलिसों के दर्द आंसू सिसकियाँ
बन सकी हैं क्या कभी ये सुर्खियाँ
आम जन तो हैं सदा पिसते रहे
सर्द मौसम हो य चाहे गर्मियाँ
खून कर के वो बरी हो जाएगा
जेब में रख ली हैं उसने कुर्सियाँ
चोर है इन्सां तभी तो ले गयीं
रंग फूलों का उड़ा कर तितलियाँ
आदमी का रंग ऐसा देख कर
पी गयीं तालाब सारी मछलियाँ
तुम अंधेरों से न डर जाओ कहीं
जेब में रख ली हैं मैंने बिजलियाँ
थाल पूजा का लिए जब आयगी
चाँद को आने न देंगी बदलियाँ
कह रही हैं हाले दिल अपना सनम
वो दराजों में पड़ी कुछ पर्चियाँ
बन सकी हैं क्या कभी ये सुर्खियाँ
आम जन तो हैं सदा पिसते रहे
सर्द मौसम हो य चाहे गर्मियाँ
खून कर के वो बरी हो जाएगा
जेब में रख ली हैं उसने कुर्सियाँ
चोर है इन्सां तभी तो ले गयीं
रंग फूलों का उड़ा कर तितलियाँ
आदमी का रंग ऐसा देख कर
पी गयीं तालाब सारी मछलियाँ
तुम अंधेरों से न डर जाओ कहीं
जेब में रख ली हैं मैंने बिजलियाँ
थाल पूजा का लिए जब आयगी
चाँद को आने न देंगी बदलियाँ
कह रही हैं हाले दिल अपना सनम
वो दराजों में पड़ी कुछ पर्चियाँ
रविवार, 14 नवंबर 2010
प्याज बन कर रह गया है आदमी
मौन स्वर है सुप्त हर अंतःकरण
सत्य का होता रहा प्रतिदिन हरण
रक्त के संबंध झूठे हो गए
काल का बदला हुवा है व्याकरण
खेल सत्ता का है उनके बीच में
कुर्सियां तो हैं महज़ हस्तांतरण
घर तेरे अब खुल गए हैं हर गली
हे प्रभू डालो कभी अपने चरण
आपके बच्चे वही अपनाएंगे
आप का जैसा रहेगा आचरण
प्याज बन कर रह गया है आदमी
आवरण ही आवरण बस आवरण
सत्य का होता रहा प्रतिदिन हरण
रक्त के संबंध झूठे हो गए
काल का बदला हुवा है व्याकरण
खेल सत्ता का है उनके बीच में
कुर्सियां तो हैं महज़ हस्तांतरण
घर तेरे अब खुल गए हैं हर गली
हे प्रभू डालो कभी अपने चरण
आपके बच्चे वही अपनाएंगे
आप का जैसा रहेगा आचरण
प्याज बन कर रह गया है आदमी
आवरण ही आवरण बस आवरण
रविवार, 7 नवंबर 2010
ग़ज़ल ...
पंकज जी के गुरुकुल में तरही मुशायरा नयी बुलंदियों को छू रहा है ... प्रस्तुतत है मेरी भी ग़ज़ल जो इस तरही में शामिल थी ... आशा है आपको पसंद आएगी ....
महके उफक महके ज़मीं हर सू खिली है चाँदनी
तुझको नही देखा कभी देखी तेरी जादूगरी
सहरा शहर बस्ती डगर उँचे महल ये झोंपड़ी
जलते रहें दीपक सदा काइम रहे ये रोशनी
है इश्क़ ही मेरी इबादत इश्क़ है मेरा खुदा
दानिश नही आलिम नही मुल्ला हूँ न मैं मौलवी
महबूब तेरे अक्स में है हीर लैला सोहनी
मीरा कहूँ राधा कहूँ मुरली की मीठी रागिनी
इस इब्तदाए इश्क़ में अंज़ाम क्यों सोचें भला
जब यार से लागी लगन तो यार मेरी ज़िंदगी
तुम आग पानी अर्श में, पृथ्वी हवा के अंश में
ये रूह तेरे नूर से कैसे कहूँ फिर अजनबी
नज़रें झुकाए तू खड़ी है थाल पूजा का लिए
तुझमें नज़र आए खुदा तेरी करूँ मैं बंदगी
ठोकर तुझे मारी सदा अपमान नारी का किया
काली क्षमा दुर्गा क्षमा गौरी क्षमा हे जानकी
महके उफक महके ज़मीं हर सू खिली है चाँदनी
तुझको नही देखा कभी देखी तेरी जादूगरी
सहरा शहर बस्ती डगर उँचे महल ये झोंपड़ी
जलते रहें दीपक सदा काइम रहे ये रोशनी
है इश्क़ ही मेरी इबादत इश्क़ है मेरा खुदा
दानिश नही आलिम नही मुल्ला हूँ न मैं मौलवी
महबूब तेरे अक्स में है हीर लैला सोहनी
मीरा कहूँ राधा कहूँ मुरली की मीठी रागिनी
इस इब्तदाए इश्क़ में अंज़ाम क्यों सोचें भला
जब यार से लागी लगन तो यार मेरी ज़िंदगी
तुम आग पानी अर्श में, पृथ्वी हवा के अंश में
ये रूह तेरे नूर से कैसे कहूँ फिर अजनबी
नज़रें झुकाए तू खड़ी है थाल पूजा का लिए
तुझमें नज़र आए खुदा तेरी करूँ मैं बंदगी
ठोकर तुझे मारी सदा अपमान नारी का किया
काली क्षमा दुर्गा क्षमा गौरी क्षमा हे जानकी
मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010
कहने को दिल वाले हैं ...
गुरुदेव पंकज जी के आशीर्वाद से इस ग़ज़ल में कुछ परिवर्तन किए हैं .... ग़ज़ल बहर में आ गयी है अब ... आशा है आपको पसंद आएगी .....
छीने हुवे निवाले हैं
कहने को दिल वाले हैं
जिसने दुर्गम पथ नापे
पग में उसके छाले हैं
अक्षर की सेवा करते
रोटी के फिर लाले हैं
खादी की चादर पीछे
बरछी चाकू भाले हैं
जितने उजले कपड़े हैं
मन के उतने काले हैं
न्योता जो दे आए थे
घर पर उनके ताले हैं
कौन दिशा से हवा चली
बस मदिरा के प्याले हैं
छीने हुवे निवाले हैं
कहने को दिल वाले हैं
जिसने दुर्गम पथ नापे
पग में उसके छाले हैं
अक्षर की सेवा करते
रोटी के फिर लाले हैं
खादी की चादर पीछे
बरछी चाकू भाले हैं
जितने उजले कपड़े हैं
मन के उतने काले हैं
न्योता जो दे आए थे
घर पर उनके ताले हैं
कौन दिशा से हवा चली
बस मदिरा के प्याले हैं
मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010
चार कांधों की जरूरत है जरा उठना ...
प्रस्तुत है आज एक ग़ज़ल गुरुदेव पंकज जी के आशीर्वाद से सजी ....
छोड़ कर खुशियों के नगमें दर्द क्या रखना
लुट गया मैं लुट गया ये राग क्या् जपना
मुस्कुारा कर उठ गया सोते से मैं फिर कल
याद आई थी किसी की या के था सपना
कल सुबह देखा पुराना ट्रंक जब मैंने
यूं लगा जैसे के कोई छू गया अपना
याद पुरखों की है आई आज जब देखा
घर के इस तंदूर में यूं रोटियां थपना
झूठ भी तुम इस कदर सच्चाई से बोले
याद मुझको आ गया अखबार का छपना
आपकी आंखों की मिट्टी में न जम जाएं
जल रहे हैं ख्वाब इनके पास मत रुकना
लाश लावारिस पड़ी है चौक पर कोई
चार कांधों की जरूरत है जरा उठना
छोड़ कर खुशियों के नगमें दर्द क्या रखना
लुट गया मैं लुट गया ये राग क्या् जपना
मुस्कुारा कर उठ गया सोते से मैं फिर कल
याद आई थी किसी की या के था सपना
कल सुबह देखा पुराना ट्रंक जब मैंने
यूं लगा जैसे के कोई छू गया अपना
याद पुरखों की है आई आज जब देखा
घर के इस तंदूर में यूं रोटियां थपना
झूठ भी तुम इस कदर सच्चाई से बोले
याद मुझको आ गया अखबार का छपना
आपकी आंखों की मिट्टी में न जम जाएं
जल रहे हैं ख्वाब इनके पास मत रुकना
लाश लावारिस पड़ी है चौक पर कोई
चार कांधों की जरूरत है जरा उठना
बुधवार, 6 अक्तूबर 2010
अच्छा ... आप भी न ...
अच्छा ... आप भी न ...
ऐसे हि बोलते हो ...
झाड़ पर चढ़ाते हो बस ...
कहीं इस उम्र में भी ...
मैं नही बस ...
और मैं देखता हूँ तुम्हें
अपने आप में सिमिटते
कभी पल्लू से खेलते
कभी होठ चबाते
कभी क्षितिज को निहारते ...
पता है उस वक़्त कितनी भोली लगती हो
तुम्हारे गुलाबी गाल
गुलाब से खिल जाते हैं
हंसते हुवे छोटी छोटी आँखें
बंद सी हो जाती हैं ...
गालों के डिंपल
उतने ही गहरे लगते हैं
जब पहली बार मिलीं थी
आस्था के विशाल प्रांगण में
गुलाबी साड़ी पहने
पलकें झुकाए
पूजा की थाली लिए
फिर तो दूसरी ... तीसरी ...
और न जाने कितनी मुलाक़ातें
सालों से चल रहा ये सिलसिला
आज भी ऐसे ही चल रहा है
जैसे पहली बार मिले हों ...
और हर बार ऐसा भी लगता है
जैसे जन्म- जन्मांतर से साथ हों ...
ये कैसी अनुभूति
कौन सा एहसास है
क्या ज़रूरी है इसको कोई नाम देना ...?
किसी बंधन में बाँधना ...?
या शब्दों के सिमित अर्थों में समेटना ...?
अरे सुनो ...
मुझे तो याद हि नही रहा
क्या तुम्हें याद है
पहली बार हम कब मिले ...?
क्या तारीख थी ...?
कौन सा दिन था ...?
वैसे ... क्या ज़रूरी है
किसी तारीख को याद रखना ...?
या ज़रूरी है
हर दिन को तारीख बनाना ...?
ऐसे हि बोलते हो ...
झाड़ पर चढ़ाते हो बस ...
कहीं इस उम्र में भी ...
मैं नही बस ...
और मैं देखता हूँ तुम्हें
अपने आप में सिमिटते
कभी पल्लू से खेलते
कभी होठ चबाते
कभी क्षितिज को निहारते ...
पता है उस वक़्त कितनी भोली लगती हो
तुम्हारे गुलाबी गाल
गुलाब से खिल जाते हैं
हंसते हुवे छोटी छोटी आँखें
बंद सी हो जाती हैं ...
गालों के डिंपल
उतने ही गहरे लगते हैं
जब पहली बार मिलीं थी
आस्था के विशाल प्रांगण में
गुलाबी साड़ी पहने
पलकें झुकाए
पूजा की थाली लिए
फिर तो दूसरी ... तीसरी ...
और न जाने कितनी मुलाक़ातें
सालों से चल रहा ये सिलसिला
आज भी ऐसे ही चल रहा है
जैसे पहली बार मिले हों ...
और हर बार ऐसा भी लगता है
जैसे जन्म- जन्मांतर से साथ हों ...
ये कैसी अनुभूति
कौन सा एहसास है
क्या ज़रूरी है इसको कोई नाम देना ...?
किसी बंधन में बाँधना ...?
या शब्दों के सिमित अर्थों में समेटना ...?
अरे सुनो ...
मुझे तो याद हि नही रहा
क्या तुम्हें याद है
पहली बार हम कब मिले ...?
क्या तारीख थी ...?
कौन सा दिन था ...?
वैसे ... क्या ज़रूरी है
किसी तारीख को याद रखना ...?
या ज़रूरी है
हर दिन को तारीख बनाना ...?
बुधवार, 29 सितंबर 2010
उफ़ .... तुम भी न
पता है
तुमसे रिश्ता ख़त्म होने के बाद
कितना हल्का महसूस कर रहा हूँ
सलीके से रहना
ज़ोर से बात न करना
चैहरे पर जबरन मुस्कान रखना
"सॉरी"
"एसक्यूस मी"
भारी भरकम संबोधन से बात करना
"शेव बनाओ"
छुट्टी है तो क्या ...
"नहाओ"
कितना कचरा फैलाते हो
बिना प्रैस कपड़े पहन लेते हो
धीमे बोलने के बावजूद
नश्तर सी चुभती तुम्हारी बातें
बनावटी जीवन की मजबूरी
अच्छे बने रहने का आवरण
उफ्फ ... कितना बोना सा लगने लगा था
अच्छा ही हुआ डोर टूट गई
कितना मुक्त हूँ अब
घर में लगी हर तस्वीर बदल दी है मैने
सोफे की पोज़ीशन भी बदल डाली
फिल्मी गानों के शोर में
अब देर तक थिरकता हूँ
ऊबड़-खाबड़ दाडी में
जीन पहने रहता हूँ
तुम्हारे परफ्यूम की तमाम शीशियाँ
गली में बाँट तो दीं
पर क्या करूँ
वो खुश्बू मेरे ज़हन से नही जा रही
और हाँ
वो धानी चुनरी
जिसे तुम दिल से लगा कर रखती थीं
उसी दिन से
घर के दरवाजे पर टाँग रक्खी है
पर कोई कम्बख़्त
उसको भी नही ले जा रहा ....
तुमसे रिश्ता ख़त्म होने के बाद
कितना हल्का महसूस कर रहा हूँ
सलीके से रहना
ज़ोर से बात न करना
चैहरे पर जबरन मुस्कान रखना
"सॉरी"
"एसक्यूस मी"
भारी भरकम संबोधन से बात करना
"शेव बनाओ"
छुट्टी है तो क्या ...
"नहाओ"
कितना कचरा फैलाते हो
बिना प्रैस कपड़े पहन लेते हो
धीमे बोलने के बावजूद
नश्तर सी चुभती तुम्हारी बातें
बनावटी जीवन की मजबूरी
अच्छे बने रहने का आवरण
उफ्फ ... कितना बोना सा लगने लगा था
अच्छा ही हुआ डोर टूट गई
कितना मुक्त हूँ अब
घर में लगी हर तस्वीर बदल दी है मैने
सोफे की पोज़ीशन भी बदल डाली
फिल्मी गानों के शोर में
अब देर तक थिरकता हूँ
ऊबड़-खाबड़ दाडी में
जीन पहने रहता हूँ
तुम्हारे परफ्यूम की तमाम शीशियाँ
गली में बाँट तो दीं
पर क्या करूँ
वो खुश्बू मेरे ज़हन से नही जा रही
और हाँ
वो धानी चुनरी
जिसे तुम दिल से लगा कर रखती थीं
उसी दिन से
घर के दरवाजे पर टाँग रक्खी है
पर कोई कम्बख़्त
उसको भी नही ले जा रहा ....
मंगलवार, 21 सितंबर 2010
क्षणिकाएँ
१) रेखाएँ
हर नये दर्द के साथ
बढ़ जाती है
नयी रेखा हाथ में
और लोग कहते हैं
हाथ के रेखाओं में
भविष्य छिपा है ...
२) चाँद
आसमान में
अटका
तारों में
भटका
सूरज के आते ही
खा गया
झटका
३)
साँसों के साथ खींच कर
दिल में रख लूँगा तुझे
सुना है
खून के कतरे
फेफड़ों से हो कर
दिल में जाते हैं
हर नये दर्द के साथ
बढ़ जाती है
नयी रेखा हाथ में
और लोग कहते हैं
हाथ के रेखाओं में
भविष्य छिपा है ...
२) चाँद
आसमान में
अटका
तारों में
भटका
सूरज के आते ही
खा गया
झटका
३)
साँसों के साथ खींच कर
दिल में रख लूँगा तुझे
सुना है
खून के कतरे
फेफड़ों से हो कर
दिल में जाते हैं
सोमवार, 13 सितंबर 2010
बीती यादें ...
अक्सर
गुज़रे हुवे वक़्त की सतह पर
तेरी यादों की काई टिकने नही देती
एक बार फिसलने पर
फिसलता चला जाता हूँ
खुद को समेटने की कोशिश में
और बिखर जाता हूँ
बीते लम्हों के घाव
पूरे जिस्म पर उभर आते हैं
बीती यादों का जंगल
निकलने नही देता है
वर्तमान में जीने की कोशिश
तेरा ख्वाब रोक देता है
उंगलियों की पकड़
मौका पकड़ने नही देती
बाहों में कोई ख्वाब
जकड़ने नही देती
घर की हर चौखट पर
तेरी यादों की दीमक रेंग रही हैं
बीते लम्हों की सीलन
दीवारों पर उतर आई है
अगली बरसात से पहले
हर कमरे को धूप लगाना चाहता हूँ
बरसों से जमी काई
खुरच देना चाहता हूँ
हर साल की तरह अपने आप से
नया अनुबंध करना चाहता हूँ
इक नया ख्वाब बुनना चाहता हूँ
गुज़रे हुवे वक़्त की सतह पर
तेरी यादों की काई टिकने नही देती
एक बार फिसलने पर
फिसलता चला जाता हूँ
खुद को समेटने की कोशिश में
और बिखर जाता हूँ
बीते लम्हों के घाव
पूरे जिस्म पर उभर आते हैं
बीती यादों का जंगल
निकलने नही देता है
वर्तमान में जीने की कोशिश
तेरा ख्वाब रोक देता है
उंगलियों की पकड़
मौका पकड़ने नही देती
बाहों में कोई ख्वाब
जकड़ने नही देती
घर की हर चौखट पर
तेरी यादों की दीमक रेंग रही हैं
बीते लम्हों की सीलन
दीवारों पर उतर आई है
अगली बरसात से पहले
हर कमरे को धूप लगाना चाहता हूँ
बरसों से जमी काई
खुरच देना चाहता हूँ
हर साल की तरह अपने आप से
नया अनुबंध करना चाहता हूँ
इक नया ख्वाब बुनना चाहता हूँ
सोमवार, 6 सितंबर 2010
मेरा शून्य
नही में नही चाहता
सन्नाटों से बाहर आना
इक नयी शुरुआत करना
ज़ख़्मी यादों का दंश सहते सहते
लाहुलुहान हो गया हूँ
गुज़रे लम्हों की सिसकियाँ
बहरा कर देतीं हैं
बीते वक़्त की खुश्बू
साँसें रोक रही है
रोशनी की चकाचौंध
अँधा कर रही है
तुम्हारी देह की मादक गंध
सह नही पाता
खनकती हँसी
सुन नही पाता
गहरी आँखों की कोई
थाह नही पाता
बाहों का हार
नागपाश लगता है
मुझे इस खामोशी में रहने दो
इन अंधेरों में बसने दो
ये मेरा ही शून्य है
इन सन्नाटों में रहने दो ...
सन्नाटों से बाहर आना
इक नयी शुरुआत करना
ज़ख़्मी यादों का दंश सहते सहते
लाहुलुहान हो गया हूँ
गुज़रे लम्हों की सिसकियाँ
बहरा कर देतीं हैं
बीते वक़्त की खुश्बू
साँसें रोक रही है
रोशनी की चकाचौंध
अँधा कर रही है
तुम्हारी देह की मादक गंध
सह नही पाता
खनकती हँसी
सुन नही पाता
गहरी आँखों की कोई
थाह नही पाता
बाहों का हार
नागपाश लगता है
मुझे इस खामोशी में रहने दो
इन अंधेरों में बसने दो
ये मेरा ही शून्य है
इन सन्नाटों में रहने दो ...
सोमवार, 30 अगस्त 2010
परंपरा ..
क्या हर युग में
एकलव्य को देना होगा अंगूठे का दान ..?
शिक्षक की राजनीति का
रखना होगा मान ..?
झूठी परंपरा का
करना होगा सम्मान ..?
रिस्ते हुवे अंगूठे का बोझ
द्रोण ने उठा लिया
शिक्षा का व्यवसायिक करण
भीष्म ने निभा लिया
पर साक्षी है इतिहास
व्यवस्था के अन्याय का
शिक्षा के व्यवसाय का
गीता के अध्याय का
कृष्ण के न्याय का
शिक्षक से ज़्यादा
कौन समझता है
बीते हुवे कल का इतिहास
सही और ग़लत का गणित
भौतिक इच्छाओं का अर्थशास्त्र
झूठे अहम का मनोविज्ञान
अनगिनत परंपराओं की भीड़ में
क्या संभव है
इस परंपरा का अंत ...
एकलव्य को देना होगा अंगूठे का दान ..?
शिक्षक की राजनीति का
रखना होगा मान ..?
झूठी परंपरा का
करना होगा सम्मान ..?
रिस्ते हुवे अंगूठे का बोझ
द्रोण ने उठा लिया
शिक्षा का व्यवसायिक करण
भीष्म ने निभा लिया
पर साक्षी है इतिहास
व्यवस्था के अन्याय का
शिक्षा के व्यवसाय का
गीता के अध्याय का
कृष्ण के न्याय का
शिक्षक से ज़्यादा
कौन समझता है
बीते हुवे कल का इतिहास
सही और ग़लत का गणित
भौतिक इच्छाओं का अर्थशास्त्र
झूठे अहम का मनोविज्ञान
अनगिनत परंपराओं की भीड़ में
क्या संभव है
इस परंपरा का अंत ...
गुरुवार, 19 अगस्त 2010
मैं नही चाहता ...
नही मैं नही चाहता
नीले आकाश को छूना
नयी बुलंदी को पाना
उस गगनचुंबी इमारत में बैठना
जहाँ धुएं का विस्तार खुद को समेटने नही देता
जहाँ हर दूसरा तारा
तेज़ चमकने कि होड़ में लुप्त हो जाता है
पैर टिकाने कि कोशिश में
दूसरे का सिर कुचल जाता है
जहाँ सिक्कों का शोर बहरा कर दे
खुद का अस्तित्व बोना हो जाए
संवेदनहीन दीवारों में धड़कन खो जाए
तेरे हाथों की खुश्बू
" सिक्योरिटी चैक" कर के आए
अम्मा के हाथों से बनी रोटी
पिज़्ज़ा बर्गर से शरमाये
जहाँ अंतस का चुंबकीय तेज महत्व हीन हो जाए
बचपन की यादों पर पहरा लग जाए
टुकड़ों में बँटा मेरा अस्तित्व
कोट और पैंट में फँस जाए
मैं नही चाहता
हाँ मैं नही चाहता
उस नीले आकाश को छूना
नयी बुलंदी को पाना
उस गगनचुंबी इमारत में बैठना
नीले आकाश को छूना
नयी बुलंदी को पाना
उस गगनचुंबी इमारत में बैठना
जहाँ धुएं का विस्तार खुद को समेटने नही देता
जहाँ हर दूसरा तारा
तेज़ चमकने कि होड़ में लुप्त हो जाता है
पैर टिकाने कि कोशिश में
दूसरे का सिर कुचल जाता है
जहाँ सिक्कों का शोर बहरा कर दे
खुद का अस्तित्व बोना हो जाए
संवेदनहीन दीवारों में धड़कन खो जाए
तेरे हाथों की खुश्बू
" सिक्योरिटी चैक" कर के आए
अम्मा के हाथों से बनी रोटी
पिज़्ज़ा बर्गर से शरमाये
जहाँ अंतस का चुंबकीय तेज महत्व हीन हो जाए
बचपन की यादों पर पहरा लग जाए
टुकड़ों में बँटा मेरा अस्तित्व
कोट और पैंट में फँस जाए
मैं नही चाहता
हाँ मैं नही चाहता
उस नीले आकाश को छूना
नयी बुलंदी को पाना
उस गगनचुंबी इमारत में बैठना
मंगलवार, 20 जुलाई 2010
जांना ...
जांना ..
सुन मेरी जांना ..
अक्सर तेरे स्पर्श के बाद
में जाग नही पाता
और सच पूछो
तो सो भी नही पाता
सोया होता हूँ
तो चेतन रहता हूँ
चेतन में सम्मोहित रहता हूँ
तेरि मोहिनी
मुझे पाश में लिए रहती है
साँसों के साथ तेरी खुश्बू
मेरे जिस्म में समा जाती है
जब कभी मैं स्वयं से
स्वयं का परिचय पूछता हूँ
तू चुपके से मेरे सामने आ जाती है...
सुन मेरी जांना ..
अक्सर तेरे स्पर्श के बाद
में जाग नही पाता
और सच पूछो
तो सो भी नही पाता
सोया होता हूँ
तो चेतन रहता हूँ
चेतन में सम्मोहित रहता हूँ
तेरि मोहिनी
मुझे पाश में लिए रहती है
साँसों के साथ तेरी खुश्बू
मेरे जिस्म में समा जाती है
जब कभी मैं स्वयं से
स्वयं का परिचय पूछता हूँ
तू चुपके से मेरे सामने आ जाती है...
गुरुवार, 15 जुलाई 2010
धरती
परंपराओं में बँधी
दधीचि सी उदार
नियमों में बँधी
जिस्मानी उर्वारा ढोने को लाचार
बेबस धरती की कोख
ना चाहते हुवे
कायर आवारा बीज को
पनाह की मजबूरी
अनवरत सींचने की कुंठा
निर्माण का बोझ
पालने का त्रास
अथाह पीड़ा में
जन्म देने की लाचारी
अनचाही श्रीष्टि का निर्माण
आजन्म यंत्रणा का अभिशाप
ये कैसा न्याय कैसा स्रजन
प्राकृति का कैसा खेल
धरती का कैसा धर्म ....
दधीचि सी उदार
नियमों में बँधी
जिस्मानी उर्वारा ढोने को लाचार
बेबस धरती की कोख
ना चाहते हुवे
कायर आवारा बीज को
पनाह की मजबूरी
अनवरत सींचने की कुंठा
निर्माण का बोझ
पालने का त्रास
अथाह पीड़ा में
जन्म देने की लाचारी
अनचाही श्रीष्टि का निर्माण
आजन्म यंत्रणा का अभिशाप
ये कैसा न्याय कैसा स्रजन
प्राकृति का कैसा खेल
धरती का कैसा धर्म ....
बुधवार, 7 जुलाई 2010
आवारा यादें ...
खोखले जिस्म में साँस लेतीं
कुछ ज़ख्मी यादें
कुछ लहुलुहान ख्वाब
जागती करवटों में गुज़री अधूरी रातें
जिस्म की ठंडक से चटके लम्हे
पसीने से नहाई चादर में लिपटा सन्नाटों का शोर
कुछ उबलते शब्दों की अंतहीन बहस
खून से रंगी चूड़ियों कि किरचें
कमीज़ पर पड़े कुछ ताज़ा जख्म के निशान
दिल के किसी कोने में
धूल के नीचे दबी
आवारा देह कि मादक गंध
कुछ हसीन लम्हों की तपिश
महकते लोबान का अधूरा नशा
गर्म साँसों का पिघलता लावा
उम्र के ढलते पड़ाव पर
कुछ ऐसे लम्हों के भूत
चुड़ेली यादें
जिस्म के खंडहर में जवान होती हैं
वक़्त के हाथों मरहम लगे जख्म कुरेदती हैं
ताज़ा तरीन रखती हैं
शुरू होता है न ख़त्म होने वाला
लंबे दर्द का सिलसिला
पर अब दर्द में
दर्द का एहसास नही होता ...
कुछ ज़ख्मी यादें
कुछ लहुलुहान ख्वाब
जागती करवटों में गुज़री अधूरी रातें
जिस्म की ठंडक से चटके लम्हे
पसीने से नहाई चादर में लिपटा सन्नाटों का शोर
कुछ उबलते शब्दों की अंतहीन बहस
खून से रंगी चूड़ियों कि किरचें
कमीज़ पर पड़े कुछ ताज़ा जख्म के निशान
दिल के किसी कोने में
धूल के नीचे दबी
आवारा देह कि मादक गंध
कुछ हसीन लम्हों की तपिश
महकते लोबान का अधूरा नशा
गर्म साँसों का पिघलता लावा
उम्र के ढलते पड़ाव पर
कुछ ऐसे लम्हों के भूत
चुड़ेली यादें
जिस्म के खंडहर में जवान होती हैं
वक़्त के हाथों मरहम लगे जख्म कुरेदती हैं
ताज़ा तरीन रखती हैं
शुरू होता है न ख़त्म होने वाला
लंबे दर्द का सिलसिला
पर अब दर्द में
दर्द का एहसास नही होता ...
बुधवार, 23 जून 2010
यूज़ एंड थ्रो
यूज़ एंड थ्रो
अँग्रेज़ी के तीन शब्द
और आत्म-ग्लानि से मुक्ति
कितनी आसानी से
कचरे की तरह निकाल दिया
अपने जीवन से मुझे
मुक्त कर लिया अपनी आत्मा को
मेरा ही सिद्धांत कह कर
मेरे ही जीवन का फलसफा बता कर
शायद सच ही कहा था तुमने
मैं भी तो आसानी से छोड़ आया
माँ बापू के सपने
दादी का मोतियाबिंब
दद्दू के पाँव दबाने वाले हाथ
राखी का क़र्ज़
दोस्तों के क़हक़हे
गाँव का मेघावी स्वाभिमान
मेरे से जुड़ी आशाएँ
अपना खुद का अस्तित्व
अर्जुन की तरह
पंछी की आँख ही नज़र आती थी मुझे
तुम्हारे रूप में
क्या है ये यूज़ एंड थ्रो
सभ्यताओं का अंतर्द्वंद
आधुनिकता की होड़ में ओढ़ा आवरण
नियम बदलता समाज
अपने आप को दोहराता मेरा इतिहास
इसी जीवन में मिलता मेरे कर्मों का फल
या मेरा ही जूता मेरे सर
अँग्रेज़ी के तीन शब्द
और आत्म-ग्लानि से मुक्ति
कितनी आसानी से
कचरे की तरह निकाल दिया
अपने जीवन से मुझे
मुक्त कर लिया अपनी आत्मा को
मेरा ही सिद्धांत कह कर
मेरे ही जीवन का फलसफा बता कर
शायद सच ही कहा था तुमने
मैं भी तो आसानी से छोड़ आया
माँ बापू के सपने
दादी का मोतियाबिंब
दद्दू के पाँव दबाने वाले हाथ
राखी का क़र्ज़
दोस्तों के क़हक़हे
गाँव का मेघावी स्वाभिमान
मेरे से जुड़ी आशाएँ
अपना खुद का अस्तित्व
अर्जुन की तरह
पंछी की आँख ही नज़र आती थी मुझे
तुम्हारे रूप में
क्या है ये यूज़ एंड थ्रो
सभ्यताओं का अंतर्द्वंद
आधुनिकता की होड़ में ओढ़ा आवरण
नियम बदलता समाज
अपने आप को दोहराता मेरा इतिहास
इसी जीवन में मिलता मेरे कर्मों का फल
या मेरा ही जूता मेरे सर
बुधवार, 16 जून 2010
शब्द-कथा
प्रस्तुत है मेरी पहली व्यंग रचना जो हिन्द-युग्म में भी प्रकाशित हो चुकी है ... आशा है आपको पसंद आएगी
शब्दकोष से निकले कुछ शब्द
बूड़े बरगद के नीचे बतियाने लगे
इक दूजे को अपना दुखड़ा सुनाने लगे
इंसानियत बोली
में तो बस किस्से कहानियों में ही पलती हूँ
हाँ कभी कभी नेताओं के भाषणों में भी मिलती हूँ
लोगों से अब नही मेरा संबंध
दुर्लभ प्रजाति की तरह
मैं भी लुप्त हो जाऊंगी
शब्द कोष के पन्नों में
हमेशा के लिए सो जाऊंगी
तभी करुणा के रोने की आवाज़ आई
सिसकते सिसकते उसने ये बात बताई
पहले तो हर दिल पर मैं करती थी राज
क्या कहूँ ...
बच्चों के दिल में भी नही रही आज
इतने में दया सम्मान और लज्जा भी बोले
जबसे जमने की बदली है चाल
हमरा भी है यही हाल
धीरे धीरे चाहत ने भी दिल खोला
प्रेम, प्रीत, प्रणय, स्नेह
ऐसे कई शब्दों की तरफ से बोला
यूँ तो हर दिल में हम रहते हैं
मतलब नज़र आए तो झरने से बहते हैं
स्वार्थ की आड़ में अक्सर हमारा प्रयोग होता है
ऐसे हालात देख कर दिल बहुत रोता है
तभी चुपचाप बैठे स्वाभिमान ने हुंकारा
पौरुष, हिम्मत और जोश को पुकारा
सब की आँखों में आ गये आँसू
मिल कर अपने अस्तित्व को धितकारा
तभी कायरता ने दी सलाह
बोली काट दो अपने अपने पंख
नही तो देर सवेर सब मर जाओगे
शब्द कोष की वीथियों में नज़र भी नही आओगे
इतने में गुंडागर्दि और मक्कारी मुस्कुराए
शोरशराबे के साथ बीच सभा में आए
बोले हमारे देव झूठ का है ज़माना
तुम शब्दकोष से बाहर मत आना
इंसानों के बीच हमारा है बोलबाला
वो देखो सत्य का मुँह काला
ये सुनते ही इंसानियत घबराई
करुणा के दिल में दहशत छाई
चाहत ने गुहार लगाई
स्वाभिमान ने टाँग उठाई
सब की आत्मा
शब्दकोष में जा समाई
शब्दकोष से निकले कुछ शब्द
बूड़े बरगद के नीचे बतियाने लगे
इक दूजे को अपना दुखड़ा सुनाने लगे
इंसानियत बोली
में तो बस किस्से कहानियों में ही पलती हूँ
हाँ कभी कभी नेताओं के भाषणों में भी मिलती हूँ
लोगों से अब नही मेरा संबंध
दुर्लभ प्रजाति की तरह
मैं भी लुप्त हो जाऊंगी
शब्द कोष के पन्नों में
हमेशा के लिए सो जाऊंगी
तभी करुणा के रोने की आवाज़ आई
सिसकते सिसकते उसने ये बात बताई
पहले तो हर दिल पर मैं करती थी राज
क्या कहूँ ...
बच्चों के दिल में भी नही रही आज
इतने में दया सम्मान और लज्जा भी बोले
जबसे जमने की बदली है चाल
हमरा भी है यही हाल
धीरे धीरे चाहत ने भी दिल खोला
प्रेम, प्रीत, प्रणय, स्नेह
ऐसे कई शब्दों की तरफ से बोला
यूँ तो हर दिल में हम रहते हैं
मतलब नज़र आए तो झरने से बहते हैं
स्वार्थ की आड़ में अक्सर हमारा प्रयोग होता है
ऐसे हालात देख कर दिल बहुत रोता है
तभी चुपचाप बैठे स्वाभिमान ने हुंकारा
पौरुष, हिम्मत और जोश को पुकारा
सब की आँखों में आ गये आँसू
मिल कर अपने अस्तित्व को धितकारा
तभी कायरता ने दी सलाह
बोली काट दो अपने अपने पंख
नही तो देर सवेर सब मर जाओगे
शब्द कोष की वीथियों में नज़र भी नही आओगे
इतने में गुंडागर्दि और मक्कारी मुस्कुराए
शोरशराबे के साथ बीच सभा में आए
बोले हमारे देव झूठ का है ज़माना
तुम शब्दकोष से बाहर मत आना
इंसानों के बीच हमारा है बोलबाला
वो देखो सत्य का मुँह काला
ये सुनते ही इंसानियत घबराई
करुणा के दिल में दहशत छाई
चाहत ने गुहार लगाई
स्वाभिमान ने टाँग उठाई
सब की आत्मा
शब्दकोष में जा समाई
सोमवार, 7 जून 2010
झूठ
नही नही
में यह नहि कहूँगा की ये मेरा अंतिम झूठ है
इससे पहले भी मैने कई बार
सच की चाशनी लपेट कर
कई झूठ बोले हैं
कई बार अंजाने ही
झूठ बोलते अटका हूँ
पर हर बार मेरी बेशर्मी ने
ढीठता के साथ सच पचा लिया
झूठ तो कर्ण ने भी बोला था
ज्ञान के लोभ में
और झूठ की बैसाखी पकड़
सच तो युधिष्ठिर ने भी नही कहा
फिर तुम से बेहतर कौन समझ सकता है
झूठ तो उस रोज़ भी कहा था मैने
जब जानते हुवे भी तुमको
स्वप्न सुंदरी से सुंदर कहा
फिर तुम्हारे बाद भी ये झूठ
न जाने कितनों को
सच का आवरण लपेट कर कहा
झूठ तो हर बार बोलता हूँ
अपने आप से
अपनी आत्मा से
अपने वजूद से
पता है …?
सच की दहलीज़ पर झूठ का शोर
सच को बहरा कर देता है
वीभत्स सच को कोई देखना नही चाहता
सच आँखें फेर लेता है
अब तो मेरा वजूद
झूठ के दलदल में तैरना सीख गया है
हाँ मैं अब भी यह नहि कह रहा
की ये मेर अंतिम और अंतिम झूठ नही है
में यह नहि कहूँगा की ये मेरा अंतिम झूठ है
इससे पहले भी मैने कई बार
सच की चाशनी लपेट कर
कई झूठ बोले हैं
कई बार अंजाने ही
झूठ बोलते अटका हूँ
पर हर बार मेरी बेशर्मी ने
ढीठता के साथ सच पचा लिया
झूठ तो कर्ण ने भी बोला था
ज्ञान के लोभ में
और झूठ की बैसाखी पकड़
सच तो युधिष्ठिर ने भी नही कहा
फिर तुम से बेहतर कौन समझ सकता है
झूठ तो उस रोज़ भी कहा था मैने
जब जानते हुवे भी तुमको
स्वप्न सुंदरी से सुंदर कहा
फिर तुम्हारे बाद भी ये झूठ
न जाने कितनों को
सच का आवरण लपेट कर कहा
झूठ तो हर बार बोलता हूँ
अपने आप से
अपनी आत्मा से
अपने वजूद से
पता है …?
सच की दहलीज़ पर झूठ का शोर
सच को बहरा कर देता है
वीभत्स सच को कोई देखना नही चाहता
सच आँखें फेर लेता है
अब तो मेरा वजूद
झूठ के दलदल में तैरना सीख गया है
हाँ मैं अब भी यह नहि कह रहा
की ये मेर अंतिम और अंतिम झूठ नही है
गुरुवार, 27 मई 2010
न पनघट न झूले न पीपल के साए
कुछ समय पहले गुरुदेव पंकज सुबीर जी के तरही मुशायरे में मेरी इस ग़ज़ल को सभी ने बहुत प्यार दिया ..... पेश है ये ग़ज़ल कुछ नये शेरों के साथ .....
न पनघट न झूले न पीपल के साए
शहर काँच पत्थर के किसने बनाए
मैं तन्हा बहुत ज़िंदगी के सफ़र में
न साथी न सपने न यादों के साए
वो ढाबे की रोटी वही दाल तड़का
कभी तो सड़क के किनारे खिलाए
वो तख़्ती पे लिख कर पहाड़ों को रटना
नही भूल पाता कभी वो भुलाए
वो अम्मा की गोदी, वो बापू का कंधा
मेरा बचपना भी कभी लौट आए
मैं बरसों से सोया नही नींद गहरी
वही माँ की लोरी कोई गुनगुनाए
मेरे घर के आँगन में आया है मुन्ना
न दादी न नानी जो घुट्टी पिलाए
सुदामा हूँ मैं और सर्दी का मौसम
न जाने नया साल क्या गुल खिलाए
अब कुछ नये शेर ....
मुझे है प्रतिक्षा उन पैगंबरों की
ह्रदय से ह्रदय की जो दूरी मिटाए
जो छेड़ा है कुदरत का क़ानून तुमने
खुदा के क़हर से खुदा ही बचाए
वो पूजा की थाली लिए सादगी सी
खड़ी है प्रतिक्षा में पलकें झुकाए
समर्पण समर्पण जहाँ बस समर्पण
प्रणय का दिया फिर वहीं मुस्कुराए
न पनघट न झूले न पीपल के साए
शहर काँच पत्थर के किसने बनाए
मैं तन्हा बहुत ज़िंदगी के सफ़र में
न साथी न सपने न यादों के साए
वो ढाबे की रोटी वही दाल तड़का
कभी तो सड़क के किनारे खिलाए
वो तख़्ती पे लिख कर पहाड़ों को रटना
नही भूल पाता कभी वो भुलाए
वो अम्मा की गोदी, वो बापू का कंधा
मेरा बचपना भी कभी लौट आए
मैं बरसों से सोया नही नींद गहरी
वही माँ की लोरी कोई गुनगुनाए
मेरे घर के आँगन में आया है मुन्ना
न दादी न नानी जो घुट्टी पिलाए
सुदामा हूँ मैं और सर्दी का मौसम
न जाने नया साल क्या गुल खिलाए
अब कुछ नये शेर ....
मुझे है प्रतिक्षा उन पैगंबरों की
ह्रदय से ह्रदय की जो दूरी मिटाए
जो छेड़ा है कुदरत का क़ानून तुमने
खुदा के क़हर से खुदा ही बचाए
वो पूजा की थाली लिए सादगी सी
खड़ी है प्रतिक्षा में पलकें झुकाए
समर्पण समर्पण जहाँ बस समर्पण
प्रणय का दिया फिर वहीं मुस्कुराए
गुरुवार, 20 मई 2010
प्रगति
कुछ नही बदला
टूटा फर्श
छिली दीवारें
चरमराते दरवाजे
सिसकते बिस्तर
जिस्म की गंध में घुली
फ़र्नैल की खुश्बू
चालिस वाट की रोशनी में दमकते
पीले जर्जर शरीर
लंबी क़तारों से जूझता
चीखती चिल्लाती आवाज़ों के बीच
साँसों का खेल खेलता
पुराना
सरकारी अस्पताल का
जच्चा बच्चा
वार्ड नंबर दो
जहाँ मैने भी कभी
पहली साँस ली
अस्पताल के बाहर
मुँह चिड़ाता होर्डिंग
हमारा देश - प्रगति के पथ पर
टूटा फर्श
छिली दीवारें
चरमराते दरवाजे
सिसकते बिस्तर
जिस्म की गंध में घुली
फ़र्नैल की खुश्बू
चालिस वाट की रोशनी में दमकते
पीले जर्जर शरीर
लंबी क़तारों से जूझता
चीखती चिल्लाती आवाज़ों के बीच
साँसों का खेल खेलता
पुराना
सरकारी अस्पताल का
जच्चा बच्चा
वार्ड नंबर दो
जहाँ मैने भी कभी
पहली साँस ली
अस्पताल के बाहर
मुँह चिड़ाता होर्डिंग
हमारा देश - प्रगति के पथ पर
सोमवार, 10 मई 2010
बंधुआ भविष्य
जिस्म ढकने को मुट्ठी भर शर्म
बंद आकाश का खुला गगन
साँस भर हवा
भूख का अधूरापन
नसों में दौड़ती
देसी महुए की वहशी गंध
दूर से आती
चंद सिक्कों की खनक
हाथ की खुरदरी रेखाओं से निकला
सुनहरा भविष्य
गूंगे झुनझुने की तरह
साम्यवादी शोर में बजता
बहरे समाजवाद को सुनाता
प्रजातंत्र की आँखों के सामने
पूंजीवाद की तिज़ोरी में बंद
या यूँ कहिए
सुरक्षित है
बंद आकाश का खुला गगन
साँस भर हवा
भूख का अधूरापन
नसों में दौड़ती
देसी महुए की वहशी गंध
दूर से आती
चंद सिक्कों की खनक
हाथ की खुरदरी रेखाओं से निकला
सुनहरा भविष्य
गूंगे झुनझुने की तरह
साम्यवादी शोर में बजता
बहरे समाजवाद को सुनाता
प्रजातंत्र की आँखों के सामने
पूंजीवाद की तिज़ोरी में बंद
या यूँ कहिए
सुरक्षित है
मंगलवार, 27 अप्रैल 2010
पहली मुलाकात ...
काम के सिलसिले में आने वाला सप्ताह ब्लॉग-जगत से दूर रहूँगा ...... जाते जाते ये कविता आपके सुपुर्द है ...
सुनो
क्या याद है तुम्हे
पहली मुलाकात
पलकें झुकाए
दबी दबी हँसी
छलकने को बेताब
वो अल्हड़ लम्हे
भीगा एहसास
हाथों में हाथ लिए
घंटों ठहरा वक़्त
उनिंदी रातें
कहने को
अनगिनत बातें
दिल की बंज़र ज़मीन पर
नाख़ून से बने कुछ निशान
कोरे केनवस पर खिंची
आडी तिरछी रेखाओं के ज़ख़्म
आज भी ताज़ा है नमी
खून से रिसती लकीरों में
जिंदा है तेरे हाथों की खुश्बू
धमनियों में दौड़ते खून में
तेरी यादें मकसद हैं
मेरे जीने की चाह का
तेरा एहसास उर्जा है
मेरी साँसों के प्रवाह का
सुनो
क्या याद है तुम्हे
पहली मुलाकात
पलकें झुकाए
दबी दबी हँसी
छलकने को बेताब
वो अल्हड़ लम्हे
भीगा एहसास
हाथों में हाथ लिए
घंटों ठहरा वक़्त
उनिंदी रातें
कहने को
अनगिनत बातें
दिल की बंज़र ज़मीन पर
नाख़ून से बने कुछ निशान
कोरे केनवस पर खिंची
आडी तिरछी रेखाओं के ज़ख़्म
आज भी ताज़ा है नमी
खून से रिसती लकीरों में
जिंदा है तेरे हाथों की खुश्बू
धमनियों में दौड़ते खून में
तेरी यादें मकसद हैं
मेरे जीने की चाह का
तेरा एहसास उर्जा है
मेरी साँसों के प्रवाह का
गुरुवार, 22 अप्रैल 2010
बुढ़ापा - एक दृष्टि-कोण
मेरी रचना "बुढ़ापा" पर सभी मित्रों की टिप्पणी पढ़ कर अभिभूत हूँ ... जहाँ एक और रचना को सभी ने सराहा वहीं मुझे ये आभास भी हुवा की कहीं ना कहीं मेरी रचना एक नकारात्मक पहलू को इंगित कर रही है. सभी टिप्पणियों और विशेष कर आदरणीय महावीर जी की समीक्षा और उनकी लिखी ग़ज़ल ने मुझे प्रेरित किया की मैं बुढ़ापे को इक नये दृष्टि-कोण से देखूं.
आशा है इस नयी रचना में आपको ज़रूर सकारात्मक पहलू नज़र आएगा.
उम्र का मंथन
तज़ुरबों की ख़ान
समय के पन्नों पर लिखा
अनुभव का ग्रंथ
चेहरे की झुर्रियों में उगे
मील के पत्थर
हाथों की उर्वरा से उगे
अनगिनत भविष्य
यज्ञ जीवन
अनंत का निर्माण
जीवन की संध्या
स्वयं का निर्वाण
श्रीष्टि का नियम
प्रेयसी की प्रतीक्षा
मौत का आलिंगन
देह का त्याग
यही तो प्रारंभ है
आत्मा परमात्मा के मिलन का
नये युग के प्रवाह का
आशा है इस नयी रचना में आपको ज़रूर सकारात्मक पहलू नज़र आएगा.
उम्र का मंथन
तज़ुरबों की ख़ान
समय के पन्नों पर लिखा
अनुभव का ग्रंथ
चेहरे की झुर्रियों में उगे
मील के पत्थर
हाथों की उर्वरा से उगे
अनगिनत भविष्य
यज्ञ जीवन
अनंत का निर्माण
जीवन की संध्या
स्वयं का निर्वाण
श्रीष्टि का नियम
प्रेयसी की प्रतीक्षा
मौत का आलिंगन
देह का त्याग
यही तो प्रारंभ है
आत्मा परमात्मा के मिलन का
नये युग के प्रवाह का
सोमवार, 19 अप्रैल 2010
बुढ़ापा
जिस्म पर रेंगती
चीटियाँ की सुगबुगाहट
वक़्त के हाथों लाहुलुहान शरीर
खोखले जिस्म को घसीटते
दीमक के काफिले
शारीरिक दर्द से परे
मुद्दतो की नींद से उठा
म्रत्प्राय जिस्म का जागृत मन
दिमाग़ के सन्नाटे में
चीखती आवाज़ों का शोर
उफन कर आती यादों का झंझावात
अचेतन शरीर की आँख से निकलते
पानी के बेरंग कतरे
साँसों का अनवरत सिलसिला
जीने की मजबूरी
हाथ भर दूरी पे पड़ा
इच्छा मृत्यु का वरदान
धीरे धीरे मुस्कुराता है ...
चीटियाँ की सुगबुगाहट
वक़्त के हाथों लाहुलुहान शरीर
खोखले जिस्म को घसीटते
दीमक के काफिले
शारीरिक दर्द से परे
मुद्दतो की नींद से उठा
म्रत्प्राय जिस्म का जागृत मन
दिमाग़ के सन्नाटे में
चीखती आवाज़ों का शोर
उफन कर आती यादों का झंझावात
अचेतन शरीर की आँख से निकलते
पानी के बेरंग कतरे
साँसों का अनवरत सिलसिला
जीने की मजबूरी
हाथ भर दूरी पे पड़ा
इच्छा मृत्यु का वरदान
धीरे धीरे मुस्कुराता है ...
सोमवार, 12 अप्रैल 2010
नज़्म मेरी
कई बार गिरी
कई बार उठी
शब्दों के
हाथों से निकली
चिंदी चिंदी
हवा में बिखरी
पहलू में
कई बार रुकी
नज़्म मेरी
मुझे मेरी नज़्म ने कहा
मैं तेरे सामने
ज़िंदा खड़ी हूँ
जिस्म की खुश्बू में लिपटी
साँस लेती
बात करती
तू काहे
ढूंढता है मुझे
काग़ज़ के पुराने पन्नों में
कई बार उठी
शब्दों के
हाथों से निकली
चिंदी चिंदी
हवा में बिखरी
पहलू में
कई बार रुकी
नज़्म मेरी
मुझे मेरी नज़्म ने कहा
मैं तेरे सामने
ज़िंदा खड़ी हूँ
जिस्म की खुश्बू में लिपटी
साँस लेती
बात करती
तू काहे
ढूंढता है मुझे
काग़ज़ के पुराने पन्नों में
रविवार, 4 अप्रैल 2010
कैसा भविष्य ..
बेरहम वक़्त
जीवन की डोर
लंबी कतार
मरीज़ों का शोर
प्रसूता कक्ष से आती
साँसों की सुगबुगाहट
मुनिया की आँखों में
भविष्य की आहट
जीवन का खेल
किरण की आशा
हल्का सा डर
कुछ कुछ निराशा
अटकी साँसें
कल के सपने
प्रतीक्षा और प्रसूता कक्ष के बीच
सदियों का फांसला
मटमैला
फटा पाजामा पहने
मुनिया का पति
कुछ लम्हे को अटका वक़्त
निस्तब्धता का शोर
अचानक
लंबी चीख के साथ गूँजती बच्चे की आवाज़
करवट बदलती श्रीष्टि
समय की अंगड़ाई
साँसों का प्रवाह
नयी सुबह की आहट
भड़भड़ा कर खुलते दरवाजे की चरमराहट की बीच
सफेद चादर में लिपटा मुनिया का बेजान शरीर
साथ ही गुलाबी चोला पहने
खिलखिलाता बचपन
साँसों के बदले
साँसों का सौदा
भविष्य की चाह में
वर्तमान से टूटा नाता
बाहर लगा मुस्कुराता होर्डिंग
बच्चे - हमारे आने वाले कल का भविष्य ....
जीवन की डोर
लंबी कतार
मरीज़ों का शोर
प्रसूता कक्ष से आती
साँसों की सुगबुगाहट
मुनिया की आँखों में
भविष्य की आहट
जीवन का खेल
किरण की आशा
हल्का सा डर
कुछ कुछ निराशा
अटकी साँसें
कल के सपने
प्रतीक्षा और प्रसूता कक्ष के बीच
सदियों का फांसला
मटमैला
फटा पाजामा पहने
मुनिया का पति
कुछ लम्हे को अटका वक़्त
निस्तब्धता का शोर
अचानक
लंबी चीख के साथ गूँजती बच्चे की आवाज़
करवट बदलती श्रीष्टि
समय की अंगड़ाई
साँसों का प्रवाह
नयी सुबह की आहट
भड़भड़ा कर खुलते दरवाजे की चरमराहट की बीच
सफेद चादर में लिपटा मुनिया का बेजान शरीर
साथ ही गुलाबी चोला पहने
खिलखिलाता बचपन
साँसों के बदले
साँसों का सौदा
भविष्य की चाह में
वर्तमान से टूटा नाता
बाहर लगा मुस्कुराता होर्डिंग
बच्चे - हमारे आने वाले कल का भविष्य ....
सोमवार, 29 मार्च 2010
जीवन
खोखले नियम
रिश्तों का बोझ
लड़के कि चाह
परंपरा का निर्वाह
जनम से मृत्यु तक
पुरुष की पनाह
ता-उम्र
टोका-टोकी का
सतत प्रवाह
जाने कब
लाल जोड़े का रंग
पिघल आता है
मासूम जिस्म पर
बदल जाता है
खामोश लिबास
शफ्फाक
सफेद कफ़न में
ग्रामोफ़ोने पर बजता है गीत
मैं तो भूल चली बाबुल का देस
पिया का घर प्यारा लगे ....
रिश्तों का बोझ
लड़के कि चाह
परंपरा का निर्वाह
जनम से मृत्यु तक
पुरुष की पनाह
ता-उम्र
टोका-टोकी का
सतत प्रवाह
जाने कब
लाल जोड़े का रंग
पिघल आता है
मासूम जिस्म पर
बदल जाता है
खामोश लिबास
शफ्फाक
सफेद कफ़न में
ग्रामोफ़ोने पर बजता है गीत
मैं तो भूल चली बाबुल का देस
पिया का घर प्यारा लगे ....
गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010
सोदा
विकसित होने से पहले
कुचल जाते हैं
कुछ शब्दों के भ्रूण
बाहर आने से पहले
फँस जाते हैं होठों के बीच
कुछ जवाब
द्वंद में उलझ कर
दम तोड़ देते हैं
कुछ विचार
हथेलियों में दबे दबे
पिघल जाता है आक्रोश
पेट की आग
जिस्म की जलन
उम्मीद का झुनझुना
मौत का डर
मुक्ति की आशा
अधूरे स्वप्न
जीने की चाह
कुछ खुला गगन
पूंजीवाद की तिजोरी में बंद
गिनती की साँसें के बदले
सोदा बुरा तो नही ......
कुचल जाते हैं
कुछ शब्दों के भ्रूण
बाहर आने से पहले
फँस जाते हैं होठों के बीच
कुछ जवाब
द्वंद में उलझ कर
दम तोड़ देते हैं
कुछ विचार
हथेलियों में दबे दबे
पिघल जाता है आक्रोश
पेट की आग
जिस्म की जलन
उम्मीद का झुनझुना
मौत का डर
मुक्ति की आशा
अधूरे स्वप्न
जीने की चाह
कुछ खुला गगन
पूंजीवाद की तिजोरी में बंद
गिनती की साँसें के बदले
सोदा बुरा तो नही ......
गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010
गुबार
कुछ अनसुलझे सवाल
कुछ हसीन लम्हे
जिस्म में उगी
आवारा ख्वाबों की
भटकती नागफनी
कितना कुछ
एक ही साँस में कहने को
भटकते शब्द
डिक्शनरी के पन्नों की
फड़फड़ाहट के बीच
कुछ नये मायने तलाशते
बाहर आने की छटपटाहट में
अटके शब्द
एक मुद्दत से
होठों के मुहाने
पलते शब्द
तेरे आने का लंबा इंतज़ार
फिर अचानक
तू आ गयी इतने करीब
मुद्दत से होठों के मुहाने
पलते शब्द
फँस कर रह गये
होठों के बीच
वो मायने
जिन्हे शब्दों ने
नये अर्थ में ढाला
आँखों की उदासी ने
चुपचाप कह डाला
सुना है
आँखों की ज़ुबान होती है.....
कुछ हसीन लम्हे
जिस्म में उगी
आवारा ख्वाबों की
भटकती नागफनी
कितना कुछ
एक ही साँस में कहने को
भटकते शब्द
डिक्शनरी के पन्नों की
फड़फड़ाहट के बीच
कुछ नये मायने तलाशते
बाहर आने की छटपटाहट में
अटके शब्द
एक मुद्दत से
होठों के मुहाने
पलते शब्द
तेरे आने का लंबा इंतज़ार
फिर अचानक
तू आ गयी इतने करीब
मुद्दत से होठों के मुहाने
पलते शब्द
फँस कर रह गये
होठों के बीच
वो मायने
जिन्हे शब्दों ने
नये अर्थ में ढाला
आँखों की उदासी ने
चुपचाप कह डाला
सुना है
आँखों की ज़ुबान होती है.....
शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010
ख्वाबों के पेड़ ...
मेरे जिस्म की
रेतीली बंजर ज़मीन पर
ख्वाब के कुछ पेड़ उग आए हैं
बसंत भी दे रहा दस्तक
चाहत के फूल मुस्कुराए हैं
भटक रहे हैं कुछ लम्हे
तेरी ज़मीन की तलाश में
बिखर गये हैं शब्दों के बौर
तेरे लबों की प्यास में
अब हर साल शब्दों के
कुछ नये पेड़ उग आते हैं
नये मायनों में ढल कर
रेगिस्तान में जगमगाते हैं
अभिव्यक्ति की खुश्बू को
बरसों से तेरी प्रतीक्षा है
सुना है बरगद का पेड़
सालों साल जीता है ....
रेतीली बंजर ज़मीन पर
ख्वाब के कुछ पेड़ उग आए हैं
बसंत भी दे रहा दस्तक
चाहत के फूल मुस्कुराए हैं
भटक रहे हैं कुछ लम्हे
तेरी ज़मीन की तलाश में
बिखर गये हैं शब्दों के बौर
तेरे लबों की प्यास में
अब हर साल शब्दों के
कुछ नये पेड़ उग आते हैं
नये मायनों में ढल कर
रेगिस्तान में जगमगाते हैं
अभिव्यक्ति की खुश्बू को
बरसों से तेरी प्रतीक्षा है
सुना है बरगद का पेड़
सालों साल जीता है ....
रविवार, 7 फ़रवरी 2010
चाहत
चाहत
इक मधुर एहसास
पाने की नही
मुक्ति की प्यास
स्वयं को सुनाई देता
मौन स्पंदन
सीमाओं में बँधा
मुक्त बंधन
अनंत संवाद
प्रकृति से छलकता
विमुक्त आह्लाद
श्रिष्टी में गूँजता
अनहद नाद
अंतस से निकला
शाश्वत राग
अर्थ से परे
अभिव्यक्ति से आगे
क्या संभव है शब्दों में
प्रेम समेट पाना
क्या संभव है प्रेम को
भाषा में व्यक्त कर पाना
क्या संभव है अभिव्यक्ति को
सही शब्द दे पाना
क्या संभव है
चाहत के विस्त्रत आकाश को
शब्दों में बाँध पाना
इक मधुर एहसास
पाने की नही
मुक्ति की प्यास
स्वयं को सुनाई देता
मौन स्पंदन
सीमाओं में बँधा
मुक्त बंधन
अनंत संवाद
प्रकृति से छलकता
विमुक्त आह्लाद
श्रिष्टी में गूँजता
अनहद नाद
अंतस से निकला
शाश्वत राग
अर्थ से परे
अभिव्यक्ति से आगे
क्या संभव है शब्दों में
प्रेम समेट पाना
क्या संभव है प्रेम को
भाषा में व्यक्त कर पाना
क्या संभव है अभिव्यक्ति को
सही शब्द दे पाना
क्या संभव है
चाहत के विस्त्रत आकाश को
शब्दों में बाँध पाना
बुधवार, 3 फ़रवरी 2010
कैसे जीवन बीतेगा
राशन नही मिलेगा भाषन
पीने को कोरा आश्वासन
नारों की बरसात हो जब
तब कैसे जीवन बीतेगा
भीख मांगती भरी जवानी
नही बचा आँखों का पानी
बेशर्मी से बात हो जब
तब कैसे जीवन बीतेगा
जातिवाद का जहर घोलते
राष्ट्र वेदी पर स्वार्थ तोलते
अपनो का प्रतिघात हो जब
तब कैसे जीवन बीतेगा
आदर्शों की बात पुरानी
संस्कार बस एक कहानी
मानवता पर घात हो जब
तब कैसे जीवन बीतेगा
नियम खोखले, तोड़े हैं दम
मैं ही मैं है, नही बचा हम
निज के हित की बात हो जब
तब कैसे जीवन बीतेगा
पीने को कोरा आश्वासन
नारों की बरसात हो जब
तब कैसे जीवन बीतेगा
भीख मांगती भरी जवानी
नही बचा आँखों का पानी
बेशर्मी से बात हो जब
तब कैसे जीवन बीतेगा
जातिवाद का जहर घोलते
राष्ट्र वेदी पर स्वार्थ तोलते
अपनो का प्रतिघात हो जब
तब कैसे जीवन बीतेगा
आदर्शों की बात पुरानी
संस्कार बस एक कहानी
मानवता पर घात हो जब
तब कैसे जीवन बीतेगा
नियम खोखले, तोड़े हैं दम
मैं ही मैं है, नही बचा हम
निज के हित की बात हो जब
तब कैसे जीवन बीतेगा
शनिवार, 30 जनवरी 2010
सुना है अब यादें भी साँस लेती हैं ........
यादों की देहरी लाँघ
इक लम्हा सजीव हुवा
भोर सिंदूरी ने
ली अंगड़ाई
रात की काली
चादर हटाई
हवा गुनगुनाई
कली मुस्कुराइ
चुपके से मैने ओढ़ ली
तेरे एहसास की गुलाबी रज़ाई
न जाने कब में सो गया
वो पुराना लम्हा
कुछ नये एहसास सिमेटे
यादों के जंगल में
वापस लौट गया
अब नयी यादें
अक्सर पुरानी यादों से मिलती हैं
कुछ नये ख्वाब
नये सपने संजोती हैं
सुना है
अब यादें भी साँस लेती हैं ........
इक लम्हा सजीव हुवा
भोर सिंदूरी ने
ली अंगड़ाई
रात की काली
चादर हटाई
हवा गुनगुनाई
कली मुस्कुराइ
चुपके से मैने ओढ़ ली
तेरे एहसास की गुलाबी रज़ाई
न जाने कब में सो गया
वो पुराना लम्हा
कुछ नये एहसास सिमेटे
यादों के जंगल में
वापस लौट गया
अब नयी यादें
अक्सर पुरानी यादों से मिलती हैं
कुछ नये ख्वाब
नये सपने संजोती हैं
सुना है
अब यादें भी साँस लेती हैं ........
सोमवार, 25 जनवरी 2010
कुछ ऐसे सिरफिरों के चाहने वाले मिले हैं
गुरुदेव के हाथों सँवरी ग़ज़ल .......
वो जिन के मन पे नफरत के सदा जाले मिले हैं
कुछ ऐसे सिरफिरों के चाहने वाले मिले हैं
समय के हाथ पर जो लिख गये फिर नाम अपना
उन्ही के पाँव में रिस्ते हुवे छाले मिले हैं
जो तन पर ओढ़ कर बैठे हैं खादी की दुशाला
उन्ही के मन हमेशा से घने काले मिले हैं
समय ने दी तो थी दस्तक मेरे भी घर पे लेकिन
मेरी किस्मत उसे घर पर मेरे ताले मिले हैं
वो जिन हाथों में रहती थी सदा क़ुरआन गीता
उन्हीं हाथों में मदिरा के हमें प्याले मिले हैं
अमन की बात करते थे जो कल संसद भवन में
उन्ही की आस्तीनों में छुरे भाले मिले हैं
वो जिन के मन पे नफरत के सदा जाले मिले हैं
कुछ ऐसे सिरफिरों के चाहने वाले मिले हैं
समय के हाथ पर जो लिख गये फिर नाम अपना
उन्ही के पाँव में रिस्ते हुवे छाले मिले हैं
जो तन पर ओढ़ कर बैठे हैं खादी की दुशाला
उन्ही के मन हमेशा से घने काले मिले हैं
समय ने दी तो थी दस्तक मेरे भी घर पे लेकिन
मेरी किस्मत उसे घर पर मेरे ताले मिले हैं
वो जिन हाथों में रहती थी सदा क़ुरआन गीता
उन्हीं हाथों में मदिरा के हमें प्याले मिले हैं
अमन की बात करते थे जो कल संसद भवन में
उन्ही की आस्तीनों में छुरे भाले मिले हैं
मंगलवार, 19 जनवरी 2010
हिल गई बुनियाद घर फिर भी खड़ा था
ये ग़ज़ल पुनः आपके सामने है .......... गुरुदेव पंकज जी का हाथ लगते ही ग़ज़ल में बला की रवानगी आ गयी है ......
यूँ तो सारी उम्र ज़ख़्मों से लड़ा था
हिल गई बुनियाद घर फिर भी खड़ा था
बस उबर पाया नहीं तेरी कसक से
भर गया वो घाव जो सर पे पड़ा था
वो चमक थी या हवस इंसान की थी
कट गया सर जिसपे भी हीरा जड़ा था
कोई उसके वास्ते रोने न आया
सच का जो झंडा लिए था वो छड़ा था
आज का हो दौर या बातें पुरानी
सुहनी के लेखे तो बस कच्चा घड़ा था
बीज मोती, गेंहू सोना, धान हीरा
खूं से सींचा तो खजाना ये गड़ा था
यूँ तो सारी उम्र ज़ख़्मों से लड़ा था
हिल गई बुनियाद घर फिर भी खड़ा था
बस उबर पाया नहीं तेरी कसक से
भर गया वो घाव जो सर पे पड़ा था
वो चमक थी या हवस इंसान की थी
कट गया सर जिसपे भी हीरा जड़ा था
कोई उसके वास्ते रोने न आया
सच का जो झंडा लिए था वो छड़ा था
आज का हो दौर या बातें पुरानी
सुहनी के लेखे तो बस कच्चा घड़ा था
बीज मोती, गेंहू सोना, धान हीरा
खूं से सींचा तो खजाना ये गड़ा था
गुरुवार, 14 जनवरी 2010
शिकवे कितने सारे हैं
झूठे वादे, झूठे सपने, झूठे इनके नारे हैं
जैसे नेता, वैसी जनता शिकवे कितने सारे हैं
आग लगी है अफ़रा-तफ़री मची हुई है जंगल में
लूट रहे जो घर को तेरे रिश्तेदार तुम्हारे हैं
पहले तो जी भर के लूटा सागर धरती पर्वत को
डरते हैं जब भू मंडल के ऊपर जाते पारे हैं
पृथ्वी जल अग्नि वायु में इक दिन सब मिट जाना है
ये तेरा है, वो मेरा सब इसी बात के मारे हैं
अपने बंधु मित्र सगे संबंधी साथ नही देता
अपनी यादें, अपने सपने, बस ये साथ हमारे हैं
सूनी आँखें, टूटे सपने, खाली घर, रूठा अंगना
रीती रातें, सूना चंदा, तन्हा कितने तारे हैं
पात्र सुपात्र नही हो तो फिर ज्ञान नहीं बाँटा जाता
अपने ही बच्चों से अक्सर कृष्ण भी बाजी हारे हैं
जैसे नेता, वैसी जनता शिकवे कितने सारे हैं
आग लगी है अफ़रा-तफ़री मची हुई है जंगल में
लूट रहे जो घर को तेरे रिश्तेदार तुम्हारे हैं
पहले तो जी भर के लूटा सागर धरती पर्वत को
डरते हैं जब भू मंडल के ऊपर जाते पारे हैं
पृथ्वी जल अग्नि वायु में इक दिन सब मिट जाना है
ये तेरा है, वो मेरा सब इसी बात के मारे हैं
अपने बंधु मित्र सगे संबंधी साथ नही देता
अपनी यादें, अपने सपने, बस ये साथ हमारे हैं
सूनी आँखें, टूटे सपने, खाली घर, रूठा अंगना
रीती रातें, सूना चंदा, तन्हा कितने तारे हैं
पात्र सुपात्र नही हो तो फिर ज्ञान नहीं बाँटा जाता
अपने ही बच्चों से अक्सर कृष्ण भी बाजी हारे हैं
शनिवार, 9 जनवरी 2010
आपस में टकराना क्या
ध्यान रखो घर के बूढ़ों का, उनसे आँख चुराना क्या
दो बोलों के प्यासे हैं वो, प्यासों को तड़पाना क्या
हिंदू मंदिर, मस्जिद मुस्लिम, चर्च ढूँढते ईसाई
सब की मंज़िल एक है तो फिर, आपस में टकराना क्या
चप्पू छोटे, नाव पुरानी, लहरों का भीषण नर्तन
रोड़े आते हैं तो आएँ, साहिल पर सुस्ताना क्या
अपना दिल, अपनी करनी, फ़िक्र करें क्यों दुनिया की
थोड़े दिन तक चर्चा होगी, चर्चों से घबराना क्या
जलते जंगल, बर्फ पिघलती, कायनात क्यों खफा खफा
जैसी करनी वैसी भरनी, फल से अब कतराना क्या
दो बोलों के प्यासे हैं वो, प्यासों को तड़पाना क्या
हिंदू मंदिर, मस्जिद मुस्लिम, चर्च ढूँढते ईसाई
सब की मंज़िल एक है तो फिर, आपस में टकराना क्या
चप्पू छोटे, नाव पुरानी, लहरों का भीषण नर्तन
रोड़े आते हैं तो आएँ, साहिल पर सुस्ताना क्या
अपना दिल, अपनी करनी, फ़िक्र करें क्यों दुनिया की
थोड़े दिन तक चर्चा होगी, चर्चों से घबराना क्या
जलते जंगल, बर्फ पिघलती, कायनात क्यों खफा खफा
जैसी करनी वैसी भरनी, फल से अब कतराना क्या
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