कुछ समय पहले गुरुदेव पंकज सुबीर जी के तरही मुशायरे में मेरी इस ग़ज़ल को सभी ने बहुत प्यार दिया ..... पेश है ये ग़ज़ल कुछ नये शेरों के साथ .....
न पनघट न झूले न पीपल के साए
शहर काँच पत्थर के किसने बनाए
मैं तन्हा बहुत ज़िंदगी के सफ़र में
न साथी न सपने न यादों के साए
वो ढाबे की रोटी वही दाल तड़का
कभी तो सड़क के किनारे खिलाए
वो तख़्ती पे लिख कर पहाड़ों को रटना
नही भूल पाता कभी वो भुलाए
वो अम्मा की गोदी, वो बापू का कंधा
मेरा बचपना भी कभी लौट आए
मैं बरसों से सोया नही नींद गहरी
वही माँ की लोरी कोई गुनगुनाए
मेरे घर के आँगन में आया है मुन्ना
न दादी न नानी जो घुट्टी पिलाए
सुदामा हूँ मैं और सर्दी का मौसम
न जाने नया साल क्या गुल खिलाए
अब कुछ नये शेर ....
मुझे है प्रतिक्षा उन पैगंबरों की
ह्रदय से ह्रदय की जो दूरी मिटाए
जो छेड़ा है कुदरत का क़ानून तुमने
खुदा के क़हर से खुदा ही बचाए
वो पूजा की थाली लिए सादगी सी
खड़ी है प्रतिक्षा में पलकें झुकाए
समर्पण समर्पण जहाँ बस समर्पण
प्रणय का दिया फिर वहीं मुस्कुराए
गुरुवार, 27 मई 2010
गुरुवार, 20 मई 2010
प्रगति
कुछ नही बदला
टूटा फर्श
छिली दीवारें
चरमराते दरवाजे
सिसकते बिस्तर
जिस्म की गंध में घुली
फ़र्नैल की खुश्बू
चालिस वाट की रोशनी में दमकते
पीले जर्जर शरीर
लंबी क़तारों से जूझता
चीखती चिल्लाती आवाज़ों के बीच
साँसों का खेल खेलता
पुराना
सरकारी अस्पताल का
जच्चा बच्चा
वार्ड नंबर दो
जहाँ मैने भी कभी
पहली साँस ली
अस्पताल के बाहर
मुँह चिड़ाता होर्डिंग
हमारा देश - प्रगति के पथ पर
टूटा फर्श
छिली दीवारें
चरमराते दरवाजे
सिसकते बिस्तर
जिस्म की गंध में घुली
फ़र्नैल की खुश्बू
चालिस वाट की रोशनी में दमकते
पीले जर्जर शरीर
लंबी क़तारों से जूझता
चीखती चिल्लाती आवाज़ों के बीच
साँसों का खेल खेलता
पुराना
सरकारी अस्पताल का
जच्चा बच्चा
वार्ड नंबर दो
जहाँ मैने भी कभी
पहली साँस ली
अस्पताल के बाहर
मुँह चिड़ाता होर्डिंग
हमारा देश - प्रगति के पथ पर
सोमवार, 10 मई 2010
बंधुआ भविष्य
जिस्म ढकने को मुट्ठी भर शर्म
बंद आकाश का खुला गगन
साँस भर हवा
भूख का अधूरापन
नसों में दौड़ती
देसी महुए की वहशी गंध
दूर से आती
चंद सिक्कों की खनक
हाथ की खुरदरी रेखाओं से निकला
सुनहरा भविष्य
गूंगे झुनझुने की तरह
साम्यवादी शोर में बजता
बहरे समाजवाद को सुनाता
प्रजातंत्र की आँखों के सामने
पूंजीवाद की तिज़ोरी में बंद
या यूँ कहिए
सुरक्षित है
बंद आकाश का खुला गगन
साँस भर हवा
भूख का अधूरापन
नसों में दौड़ती
देसी महुए की वहशी गंध
दूर से आती
चंद सिक्कों की खनक
हाथ की खुरदरी रेखाओं से निकला
सुनहरा भविष्य
गूंगे झुनझुने की तरह
साम्यवादी शोर में बजता
बहरे समाजवाद को सुनाता
प्रजातंत्र की आँखों के सामने
पूंजीवाद की तिज़ोरी में बंद
या यूँ कहिए
सुरक्षित है
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