मैं अपने साथ
एक समुंदर रखता था
जाने कब
तुम्हारी नफ़रत का दावानल
खुदकशी करने को मजबूर कर दें
मैं अपने साथ
दो गज़ ज़मीन भी रखता था
जाने कब
तुम्हारी बातों का ज़हर
जीते जी मुझे मार दे
जेब भर समुंदर
कब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला
मैं अब भी साँस ले रहा हूँ
दर्प से दमकते तुम्हारे माथे की बिंदी
आज भी ताने मारती है
जेब में पड़ा समुंदर और दो गज़ ज़मीन
मुझे देख कर फुसफुसाते हैं
डरपोक कहीं का
आदरणीय नासवा जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
जेब में पड़ा समुंदर और दो गाज़ ज़मीन
मुझे देख कर फुसफुसाते हैं
डरपोक कहीं का
..........ऐसे हालात में मन अन्दर तक दुखी हो जाता है..... अफ़सोस की
यह हकीकत है....सुन्दर प्रस्तुति ।
जेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंकब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला
itni achhi rachna ko maun padhna adhik sukhad laga
मैं अब भी साँस ले रहा हूँ
जवाब देंहटाएंदर्प से दमकते तुम्हारे माथे की बिंदी
आज भी ताने मारती है
बहुत खूबसूरत नज्म....
जेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंमुट्ठी भर अस्तित्व...
वाह...नासवा जी, इन पंक्तियों का जवाब नहीं..
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...
bhaut acchi rachna....
जवाब देंहटाएंman kuchh bechain sa ho gaya padh kar
जवाब देंहटाएंpar man ki baat kahin to kahi gayi....achchha laga
abhar
Naaz
चिंतन की अथाह गहराई, जैसे वैचारिक सागर की अनंत गहराई से शब्द मोती ले आए?
जवाब देंहटाएंजेब भर समुंदर
कब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
जेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंकब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला....
गहराई तक उतरने वाली रचना...
सादर....
मैं अब भी साँस ले रहा हूँ
जवाब देंहटाएंदर्प से दमकते तुम्हारे माथे की बिंदी
आज भी ताने मारती है
Wah !
waah naswa ji ..kya likha hai ..bahut sundar....
जवाब देंहटाएंजेब में पड़ा समुंदर और दो गज़ ज़मीन
जवाब देंहटाएंमुझे देख कर फुसफुसाते हैं
डरपोक कहीं का
जो मृत्यु भय से पार हुआ उसे जो मिलता है वह अन्य को नहीं मिलता.
सोचने को मजबूर करती लेखनी ....निशब्द होती टिपण्णी ...........आभार
जवाब देंहटाएं--
क्या भूल गए की मेरी ये बिंदी
जवाब देंहटाएंजिसका दर्प तुमको आज दिख रहा हैं
उसका अस्तित्व तुम से ही बना हैं
जिस दिन ये बिंदी मैने माथे पर लगा ली
उस दिन से अपने अस्तित्व को खो दिया
तुमने तो केवल समुद्र और दो गज जमी ही खोई
मेरा तो सारा अस्तित्व ही ये बिंदी ही लील गयी
और फिर भी इस का दर्प तुमको दिखता रहा
बेहतरीन।
जवाब देंहटाएंसादर
जेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंकब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला
Wah! Aapne nishabd kar diya!
गहरी अभिव्यक्ति ...
जवाब देंहटाएंजेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंकब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला
मैं अब भी साँस ले रहा हूँ
दर्प से दमकते तुम्हारे माथे की बिंदी
आज भी ताने मारती है
जेब में पड़ा समुंदर और दो गाज़ ज़मीन
मुझे देख कर फुसफुसाते हैं
डरपोक कहीं का
Bahut Khoob!
bahut achchi abhivyakti achche shabdon ka chayan is kavita ki khoobsuti hai.
जवाब देंहटाएंसिर्फ दो शब्द ही कहना चाहूंगा, बहुत खूब, बहुत खूब, बहुत खूब।
जवाब देंहटाएं............
प्रेम एक दलदल है..
’चोंच में आकाश’ समा लेने की जिद।
जेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंकब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला
इन पंक्तियों में कितने गहन भावों का समावेश है ...बहुत ही उम्दा प्रस्तुति ।
इस ऊहापोह से उबरना ही होगा।
जवाब देंहटाएंकिस मनोदशा में ऐसे विचार आये होंगे अभी तक यही सोच रही हूँ
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअद्भुत दिगंबर भाई अद्भुत...क्या लिखा है आपने...वाह...मेरी तो बोलती ही बंद हो गयी है...ऐसी विलक्षण रचना पर क्या टिपण्णी करूँ...आपकी लेखनी को प्रणाम करता हूँ...
जवाब देंहटाएंनीरज
बहुत खूबसूरत प्रस्तुति , लाजवाब पोस्ट दिगंबर जी , आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंदर्प से दमकते तुम्हारे माथे की बिंदी
जवाब देंहटाएंआज भी ताने मारती है
लगता है किसी पुराने बेवफा की याद ताज़ा हो आई है ।
निकाल फेंक दो --जेब में पड़ा समुंदर और दो गज़ ज़मीन को ।
फिर डर भी अपने आप दफ़न हो जायेगा ।
ग़ज़ब की अभिव्यक्ति ।
वाह साहब अंतिम लाईने तो जबरदस्त बन पड़ी हैं वाकई मेरा जमीर मुझे देख फ़ुस्फ़ुसाता है ।
जवाब देंहटाएंमेरे अंदर का इंसान अंदर ही अंदर कसमसाता है ॥
दर्प से दमकते तुम्हारे माथे की बिंदी
जवाब देंहटाएंआज भी ताने मारती है
जेब में पड़ा समुंदर और दो गज़ ज़मीन
मुझे देख कर फुसफुसाते हैं
डरपोक कहीं का..
मनोभावों को बहुत खूबसूरती से लिखा है ...
रचना जी कि टिप्पणी भी बहुत सार्थक है ..
सिर्फ सोनल ही नहीं और भी कई यही सोचते हैं कि किस मनोदशा में ऐसे विचार आए होंगे :) जो भी हो बिम्ब प्रयोग लाजवाब है...
जवाब देंहटाएंकितना सुन्दर लिख देते है आप.
जवाब देंहटाएंबात सीधे दिल में उतर जाती है.
सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए आभार.
जेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंकब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
--खामोश कर दिए गए दर्द की कुशल अभिव्यक्ति ..
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति.
[कविता में माथे की बिंदी ..नज़र आई मगर आज पूजा का थाल नज़र नहीं आया...]
ओह। क्या कहुॅ इसके बारे में। बस खामोशी से इसमें अपने आप को खोज रहा हुॅ।
जवाब देंहटाएंदिगम्बर जी!
जवाब देंहटाएंआपके बिम्ब अनोखे होते हैं और उनका प्रयोग चकित करता है.. जेब में भरा समंदर और दो गज ज़मीन का टुकड़ा.. और इसकी पृष्ठभूमि में भय!!
बहुत गहरा और दार्शनिक प्रयोग!!
जेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंकब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला
अत्यंत सशक्त अभिव्यक्ति, शुभकामनाएं.
रामराम.
मैं अब भी साँस ले रहा हूँ
जवाब देंहटाएंदर्प से दमकते तुम्हारे माथे की बिंदी
आज भी ताने मारती है
ये पंक्तियाँ बेहतरीन थीं|
जेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंकब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला
दिल की गहराईयों को छूने वाली बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
सादर,
डोरोथी.
दिगंबर भाई तुम तो धमाके पर धमाके करे जा रहे हो यार| कहाँ से मिलती हैं ऐसी जादुई कल्पनाएं तुम्हें| दिल खुश कर दित्ता प्रा| जियो मेरे यार जियो|
जवाब देंहटाएंजेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंकब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
जितने खूबसूरत शब्द हैं उनते ही उन्नत भावों से सजाया है. शब्द नहीं हैं मेरे पास बयान करने के लिए
समंदर और ज़मीन का क्या है,उसमें तो मिलना ही है एक दिन। धन्यवाद दीजिए उस बिंदी को जो आपमें जीवन की लौ जलाए हुए है।
जवाब देंहटाएंचुप रहने के सिवा कुछ नहीं .....
जवाब देंहटाएंखुद की खोज ...बहुत प्रभावशाली रचना ...बेहतरीन अंदाज़ बात कहने का
जवाब देंहटाएंदिगंबर नासवा जी प्रतीकों की मार्फ़त दो टूक कह जातें हैं आप जीवन की तल्खियां और समझौते .
जवाब देंहटाएंडरपोक पन हर एक की जिन्दगी का हिस्सा बन के जरूर आता है. कोइ इस पर अट्टहास कर लेता है और कोइ इसी के नीचे दब जाता है, बस यही फ़र्क है.
जवाब देंहटाएंwaah kya baat hai bahut sunder maza aa gaya padhkar gaya padhkar
जवाब देंहटाएंsundar prastuti haqeekat bhari.
जवाब देंहटाएंजेब में पड़ा समुंदर और दो गज़ ज़मीन
जवाब देंहटाएंमुझे देख कर फुसफुसाते हैं
डरपोक कहीं का
खूब ...कमाल की अभिव्यक्ति है... बधाई
डरपोक कहीं का
जवाब देंहटाएं...बहुत खौफनाक गूँज है....
उम्दा रचना....
वक्त जीवन में ऐसा भी कभी आता है
जवाब देंहटाएंसाँस चलती है पर इंसान टूट जाता है!
बेहतरीन छंद मुक्त कविता के लिए बधाई स्वीकार करें।
जवाब देंहटाएंडरपोक कहीं का...!..वाह!
बेहतरीन छंद मुक्त कविता के लिए बधाई स्वीकार करें।
जवाब देंहटाएंडरपोक कहीं का...!..वाह!
लाजवाब प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार
दुनिया बहुत बड़ी है, छोटे से समुन्दर और दो गज जमीन से।
जवाब देंहटाएंवाह बहुत ही लाजवाब कर देने वाली रचना ..गहती अभिव्यक्ति और तल्ख़ सच्चाई ....
जवाब देंहटाएंसशक्त और गहरी अभिव्यक्ति......
जवाब देंहटाएंजितनी बार भी पढ़ा लगा अभी एक-दो बार और पढना पड़ेगा...
कुंवर जी,
बेहद सुन्दर रचना ...
जवाब देंहटाएंजेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंकब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला...
कमाल के अहसास पेश किए हैं नासवा जी, बहुत बहुत मुबारकबाद.
मुझे इश्तहार सी लगती हैं, ये मोहब्बतों की कहानियां...
जवाब देंहटाएंजो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो...
एलान कर रही है ये कविता...बहादुरी का...बिंदी के दर्प को तोड़ कर भी जिन्दा हैं...
seedha dil tak pahunchti ek marmik rachna...bahut badhai aapko...
जवाब देंहटाएंअतिसुन्दर शब्दों का उतार चड़ाव
जवाब देंहटाएंऔर उसपर आपके सुन्दर भाव
इस रचना को एक अलग ही रूप
देते हैं जिसकी विवेचना करना
मेरे तो बसकी बात नहीं
अक्षय-मन "!!कुछ मुक्तक कुछ क्षणिकाएं!!" से
बहुत सुन्दर ,समंदर के लहरों को बचाए रखिये !
जवाब देंहटाएंजेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंकब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला
अगर पता चल जाये तो वक्त की क्या अहमियत रह जाये। गहरी संवेदनायें लिये रचना। शुभकामनायें।
जेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंकब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला...
अद्भुत सुन्दर पंक्तियाँ! आपकी रचना की तारीफ़ के लिए अलफ़ाज़ कम पर गए! उम्दा प्रस्तुती!
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
जेब भर समुन्दर कब आत्मा को लील गया
जवाब देंहटाएं.....................................................
..........................पता ही नहीं चला '
वाह .....गज़ब के भाव और गज़ब की प्रस्तुति
जेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंकब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला
ऐसा ही होता है और हम अपनी ही नजरों में बौने होते जाते हैं... बेहद उम्दा रचना !
बहुत सुन्दर ,खूबसूरत शब्द ,अनुपम प्रस्तुति के लिए आभार |
जवाब देंहटाएंआनंद आ गया साहब... बहुत दिन से इन्टरनेट से दूर था.. पास आया तो ये बेहतरीन रचना मिली...
जवाब देंहटाएंजेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंकब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला
isi tarah sundar badhiya likhte rahiye taki hum bharpur aanand lete rahe brabar ,rashmi ji ne sahi kaha .
मैं अपने साथ
जवाब देंहटाएंएक समुंदर रखता था
जाने कब
तुम्हारी नफ़रत का दावानल
खुदकशी करने को मजबूर कर दें
@ आपकी इन पंक्तियों में 'असंगत दोष' है,
'नफरत का दावानल'
यदि आपकी खुदकुशी को तय कर देता है
तब 'समुन्दर' में डूबने की इच्छा क्यों?
@ क्या किसी की 'घृणा' से अधिक कष्टकर 'ग्लानि' (हमारी अपनी शर्मिंदगी) नहीं है?
यदि आप अपने किसी किये कार्य पर शर्मिंदा हैं तब आपको 'जेब के समुंदर' (पश्चाताप) पास जाने से कौन रोकता है?
मैं अपने साथ
जवाब देंहटाएंदो गज़ ज़मीन भी रखता था
जाने कब
तुम्हारी बातों का ज़हर
जीते जी मुझे मार दे
@ हाँ, 'दो गज ज़मीन' .... पास रखना बेहतर उपाय है 'अंतर्द्वन्द्व' में, किसी भी प्रकार के मानसिक द्वंद्व में.
विषाक्त संवादों से बचने का उपाय 'तात्कालिक मौन' 'घोर चुप्पी' 'उपेक्षा' ही हैं.
@ शान्तमना लोगों पर विषबुझे तीरों का असर प्रभावी नहीं होता....... इसलिए शान्ति से घरेलू क्लेश के समय धैर्यवान गदहा बन जाना चाहिये.
जेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंकब आत्मा को लील गया
@ मतलब कि आपने 'पश्चाताप' नहीं किया
.... कभी-कभी हम शर्मिन्दा तो जरूर होते हैं लेकिन 'घुटने टेकना' अपनी तौहीन समझते हैं.
मुट्ठी भर अस्तित्व
जवाब देंहटाएंकब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला
@ आपका खुद का अपनी ही नज़रों में जो वजूद है, आभासी प्रतिष्ठा का धुंधलका है... उसे बरकरार रखने के लिए आपने प्रतिवाद ज़ारी रखा...
इस प्रकार तो घरेलू झगड़े नहीं सुलझते.. और न ही मन को शान्ति मिल पाती है.
मैं अब भी साँस ले रहा हूँ
जवाब देंहटाएंदर्प से दमकते तुम्हारे माथे की बिंदी
आज भी ताने मारती है
@ 'गृहस्थ जीवन' में पति-पत्नी के बीच सुपरशक्ति बनने के लिए उठापटक देखने को मिलना
या किसी एक का सुपरशक्ति बनकर उभरना ...... इसे इन रूपों में क्यों देखा जाए?
आप स्त्री के माथे की बिंदी को 'हिटलर' क्यों समझते हैं?
'स्त्री माथे की बिंदी' को अनुशासन-दंड क्यों नहीं मान लेते.........
वह यदि कटु-उक्ति कहता है तब 'मधुर-उक्ति'/ 'हित-वाक्य' भी तो वहीँ से सुनने को मिलते हैं.
जेब में पड़ा समुंदर और दो गज़ ज़मीन
जवाब देंहटाएंमुझे देख कर फुसफुसाते हैं
डरपोक कहीं का
@ अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गयी खेत..
— 'पश्चाताप' होना तो ठीक है किन्तु उस ओर कदम बढ़ाकर 'प्रायश्चित करना' हमारी निर्भीकता है.
— न झुकना, न गलती मानना हमें जीत का झूठा अहसास कराते हैं.. किन्तु जो पारिवारिक, सामाजिक जीवन में विनत होते हैं.. वे ही वास्तविक विजेता होते हैं.
@@ इस कविता में 'कान्तासम्मित उपदेश' नहीं ...... लेकिन बाध्य जरूर करती है उन उपदेशों की गूँज सुनने को.
जवाब देंहटाएंजेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंकब आत्मा को लील गया..... मन की दशा का विवरण बखूबी मिलता है.....जेब में रखा समंदर.... खूब.....इसे सिर्फ पढ़ के महसूस कर सकती हूँ, कहना बस की बात नहीं....
kya baat ....shabd bhi khatam se mahsus ho rahe hain tarif ke liye...aabhar
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.......
जवाब देंहटाएंआज फ़िर खेली है हमने लिंक्स के साथ छुपमछुपाई आपकी एक पुरानी कविता चर्चा में आज नई पुरानी हलचल
जवाब देंहटाएंजेब में पड़ा समुंदर और दो गज़ ज़मीन
जवाब देंहटाएंमुझे देख कर फुसफुसाते हैं
डरपोक कहीं का
बहुत खूब नासवा जी, बहुत खूब ।
एकदम मौलिक विषय पर नए बिंबों के साथ कविता का सृजन किया है आपने।
इतनी ईमानदारी से सब कुछ स्वीकार करने वाले डरपोक नहीं हिम्मत वाले होते हैं. इन सब बातों को सबके सामने स्वीकार करने को भी तो कलेजा चाहिए.माथे की बिंदिया का इतना कहर....चलो मैं तो आज से ही बिंदिया का साइज़ थोडा छोटा कर देती हूँ हा हा हा ..
जवाब देंहटाएंलाजवाब प्रस्तुति कहने को शब्दों का आभाव सा हो गया है
जेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंकब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला sunder bimbon se saji lajvab abhivyakti.....
बहुत अच्छी नज्म ....
जवाब देंहटाएंमन को गहरे तक छू गई एक-एक पंक्ति...
छोटी मगर चिकोटी काटती हुई कविता...सच में बहुत मजा आता है कई बार हारने में !
जवाब देंहटाएंनासबा साहब
जवाब देंहटाएंजेब में पड़ा समुंदर और दो गज़ ज़मीन
मुझे देख कर फुसफुसाते हैं
डरपोक कहीं का
बहुत खूब !
सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति.....!
BEHTREEN.....ek-ek shabd sateek.....sadhuwaad
जवाब देंहटाएंaaderniy sir pranam...aapki rachnayein bahut gambhir hoti hain..puri ki puri rachna shandar hai..pranam ke sath
जवाब देंहटाएंबेहद गहरे भाव.. कम शब्दों में कही इसलिए यह कृति खूबसूरत लग रही है..
जवाब देंहटाएंआभार
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 04- 08 - 2011 को यहाँ भी है
जवाब देंहटाएंनयी पुरानी हल चल में आज- अपना अपना आनन्द -
fir se bahut din lag gaye mujhe aate aate ...........sadar charn sparsh !
जवाब देंहटाएंनासवा साहब आशीर्वाद चाहिए ..........की अपने आप को सहेज कर रख पाऊं .
जेब में पड़ा समुंदर और दो गज़ ज़मीन
जवाब देंहटाएंमुझे देख कर फुसफुसाते हैं
डरपोक कहीं का
वाह नासवा साहब हम सब के भीरुता को आइना दिखा दिया । बहुत सुंदर ।
बहुत कम रचनाये ऐसी होती है दिगंबर जी , जो कालजयी बन जाती है , आज आपकी इस रचना ने वो स्थान ले लिया है .. मैं कुछ दिन पहले ही पढ़ी थी इसे , तब से लेकर इसके शब्दों में डूबा हुआ हूँ. सोचता हूँ कि क्या कभी मैं भि ऐसा कुछ लिख पाऊंगा .. आपकी लेखनी को सलाम ..
जवाब देंहटाएंआभार
विजय
कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html
सीधे साधे लफजों में बडी गहरी बात कह दी आपने।
जवाब देंहटाएं------
कम्प्यूटर से तेज़!
इस दर्द की दवा क्या है....
आपकी एक पुरानी पोस्ट की चर्चा आज नई पुरानी हलचल
जवाब देंहटाएंमुझे क्षमा करे की मैं आपके ब्लॉग पे नहीं आ सका क्यों की मैं कुछ आपने कामों मैं इतना वयस्थ था की आपको मैं आपना वक्त नहीं दे पाया
जवाब देंहटाएंआज फिर मैंने आपके लेख और आपके कलम की स्याही को देखा और पढ़ा अति उत्तम और अति सुन्दर जिसे बया करना मेरे शब्दों के सागर में शब्द ही नहीं है
पर लगता है आप भी मेरी तरह मेरे ब्लॉग पे नहीं आये जिस की मुझे अति निराशा हुई है
in shabdon me badi gahri haqueeqat chhupi hui hai. behatarin...
जवाब देंहटाएंजेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंकब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला
bahut khoob
rachana
जेब में पड़ा समुंदर और दो गज़ ज़मीन
जवाब देंहटाएंमुझे देख कर फुसफुसाते हैं
डरपोक कहीं का
....लाज़वाब प्रस्तुति..एक एक शब्द अंतस को छू जाते हैं..
मैं अब भी साँस ले रहा हूँ
जवाब देंहटाएंदर्प से दमकते तुम्हारे माथे की बिंदी
आज भी ताने मारती है .
कृपया यहाँ भी दस्तक दें - दिगंबर नाशवा जी आज इस कविता को फिर बांचा ,समय की धार और नोंक दार वर्तमान से एक बार फिर रु -बा -रु हुए .
http://www.blogger.com/post-edit.g?blogID=232721397822804248&postID=५९१०७८२०२६८३८३४०६२१
HypnoBirthing: Relax while giving birth?
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/
व्हाई स्मोकिंग इज स्पेशियली बेड इफ यु हेव डायबिटीज़ ?
रजोनिवृत्ती में बे -असर सिद्ध हुई है सोया प्रोटीन .(कबीरा खडा बाज़ार में ...........)
Links to this post at Friday, August 12, 2011
बृहस्पतिवार, ११ अगस्त २०११
नासवा साहब जहां कहीं भी हों, ब्लाग पर जल्द से जल्द वापस आ जाएं, मित्रगण उनका इंतजार कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएंसाल गिरह मुबारक यौमे आज़ादी की ।
जवाब देंहटाएंhttp://veerubhai1947.blogspot.com/
रविवार, १४ अगस्त २०११
संविधान जिन्होनें पढ़ा है .....
सम्मान के योग्य नासवा जी ,
जवाब देंहटाएंसाल गिरह मुबारक यौमे आज़ादी की ।
http://veerubhai1947.blogspot.com/
रविवार, १४ अगस्त २०११
संविधान जिन्होनें पढ़ा है .....
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई और शुभकामनायें.
जवाब देंहटाएंsunder rachna. aapke apne bhaavon ki gehrai liye...
जवाब देंहटाएंshubhkamnayen
आपको एवं आपके परिवार को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें!
जवाब देंहटाएंमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें...
जवाब देंहटाएंसादर,
डोरोथी.
दिगंबर नासवा जी निम्न पंक्तियाँ बहुत सुन्दर ...सुन्दर मूल भाव
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
भ्रमर ५
जेब भर समुंदर
कब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला
जेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंकब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला
bahut hi achchhi rachna hai ,swatantrata divas ki badhai .
arthpurn sarthak rachna....
जवाब देंहटाएंजेब में पड़ा समुंदर और दो गज़ ज़मीन
जवाब देंहटाएंमुझे देख कर फुसफुसाते हैं
डरपोक कहीं का
बहुत सुन्दर . बधाई स्वीकारें
जेब भर समुंदर
जवाब देंहटाएंकब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला
bahut hi sundar varnan .....
darpok is beautiful . kuch shabdo me sab kuch kah diya . naman
मैं अब भी साँस ले रहा हूँ
जवाब देंहटाएंदर्प से दमकते तुम्हारे माथे की बिंदी
आज भी ताने मारती है
"behd dard or kashmakash se bhre shabd...."
regards
मैं अब भी साँस ले रहा हूँ
जवाब देंहटाएंदर्प से दमकते तुम्हारे माथे की बिंदी
आज भी ताने मारती है
"behd dard or kashmakash se bhre shabd...."
regards
nishavd kar detee hai aapkee rachnae mai to accounts walo ko le alag hee bhrum pale thee...... :)
जवाब देंहटाएंबहुत खूब रचना दिगंबर जी। कुछ इस तरह के भाव लगते हैं-
जवाब देंहटाएंउनके आने की आहट से जो हम चौकन्ने थे,
अब तो उनके कहकहों में भी हमें कोई आभाष नहीं।