ठिठुरती रात में बैठे जला कर आग अक्सर
सुनाते हैं ग़मों में वो खुशी का राग अक्सर
हवा के बुलबुले नेताओं के वादे, इरादे
बहुत जल्दी उतर जाती है इनकी झाग अक्सर
प्रजा का तंत्र है या राजनीति की व्यवस्था
तिजोरी पर मिले हैं फन उठाए नाग अक्सर
जड़ों पर खून की छींटे हमेशा डालते हैं
उजड जाते हैं अपनी फसल से वो बाग अक्सर
व्यवस्था की तिजोरी हाथ में रहती है जिनके
वही रहते हैं दौरे वक्त में बेदाग़ अक्सर
जो करते तर्क हैं बस तर्क की खातिर हमेशा
नज़र आते हैं उनको चाँद में भी दाग अक्सर
मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012
मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012
वो सूरज से बगावत कर रहा है ...
कविता के दौर से निकल कर पेश है एक गज़ल ... आशा है आपको पसंद आएगी ...
अंधेरों की हिफाज़त कर रहा है
वो सूरज से बगावत कर रहा है
अभी देखा हैं मैंने इक शिकारी
परिंदों से शराफत कर रहा है
खड़ा है आँधियों में टिमटिमाता
कोई दीपक हिमाकत कर रहा है
गली के मोड पर रखता है मटके
वो कुछ ऐसे इबादत कर रहा है
वो कहता है किताबों में सजा कर
के तितली पर इनायत कर रहा है
अभी सीखा नहीं बंदे ने उड़ना
परिंदों की शिकायत कर रहा है
बुजुर्गों को सरों पे है बिठाता
शुरू से वो ज़ियारत कर रहा है
अंधेरों की हिफाज़त कर रहा है
वो सूरज से बगावत कर रहा है
अभी देखा हैं मैंने इक शिकारी
परिंदों से शराफत कर रहा है
खड़ा है आँधियों में टिमटिमाता
कोई दीपक हिमाकत कर रहा है
गली के मोड पर रखता है मटके
वो कुछ ऐसे इबादत कर रहा है
वो कहता है किताबों में सजा कर
के तितली पर इनायत कर रहा है
अभी सीखा नहीं बंदे ने उड़ना
परिंदों की शिकायत कर रहा है
बुजुर्गों को सरों पे है बिठाता
शुरू से वो ज़ियारत कर रहा है
मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012
आज ...
कभी कभी
पंख लगा के उड़ता समय
आभास नहीं होने देता किसी विशेष दिन का
खास कर
जब दिन ऐसे बीत रहे हों की इससे अच्छे दिन हो ही नहीं सकते
ऐसे में अचानक ही जादुई कायनात
अपने इन्द्रधनुष में छेद कर
किसी विशेष दिन को और सतरंगी कर देती है
पता है आज सुबह से
हवा की सरगोशी रह रह के कुछ कहना चाह रही है
महकती बसंत पंख लगा के उड़ना चाहती है
ओस की बूंदों पे लिखा पैगाम
किसी के नाम करना चाहती है
तुम्हें तो मालुम ही है इसका राज़
फिर क्यों नहीं आ जातीं मेरे पहलू में
मुझे पता है आज सब तुमसे बात करना चाहते हैं
हो सके तो मुलाक़ात भी करना चाहते हैं
पर मैं
तुम्हें पलकों में बंद करके सो जाना चाहता हूँ
तुम्हारे साथ सपनों की सतरंगी दुनिया में
खो जाना चाहता हूँ ...
तुम चलोगी न मेरे साथ
आज ...
पंख लगा के उड़ता समय
आभास नहीं होने देता किसी विशेष दिन का
खास कर
जब दिन ऐसे बीत रहे हों की इससे अच्छे दिन हो ही नहीं सकते
ऐसे में अचानक ही जादुई कायनात
अपने इन्द्रधनुष में छेद कर
किसी विशेष दिन को और सतरंगी कर देती है
पता है आज सुबह से
हवा की सरगोशी रह रह के कुछ कहना चाह रही है
महकती बसंत पंख लगा के उड़ना चाहती है
ओस की बूंदों पे लिखा पैगाम
किसी के नाम करना चाहती है
तुम्हें तो मालुम ही है इसका राज़
फिर क्यों नहीं आ जातीं मेरे पहलू में
मुझे पता है आज सब तुमसे बात करना चाहते हैं
हो सके तो मुलाक़ात भी करना चाहते हैं
पर मैं
तुम्हें पलकों में बंद करके सो जाना चाहता हूँ
तुम्हारे साथ सपनों की सतरंगी दुनिया में
खो जाना चाहता हूँ ...
तुम चलोगी न मेरे साथ
आज ...
बुधवार, 1 फ़रवरी 2012
नीली आँखें ...
भागना चाहता था मैं
समय के पंखों पे सवार हो कर
इतना दूर
की मेरा साया भी मुझे न ढूंढ सके
आँखे खुली रखना चाहता था
तू सपने में भी करीब न आ सके
डूबना चाहता था समुन्दर में
की होश भी बाकी न रह सके
मैंने कोशिश की
खुला आसमान देख कर भागा
नीले समुन्दर में छलांग भी लगाई
पर हर बार की तरह
तेरी आँखों की गहराई में फंस के रह गया
जिसके शांत पारदर्शी समुन्दर में
खुला आसमान साफ नज़र आता था
समय के पंखों पे सवार हो कर
इतना दूर
की मेरा साया भी मुझे न ढूंढ सके
आँखे खुली रखना चाहता था
तू सपने में भी करीब न आ सके
डूबना चाहता था समुन्दर में
की होश भी बाकी न रह सके
मैंने कोशिश की
खुला आसमान देख कर भागा
नीले समुन्दर में छलांग भी लगाई
पर हर बार की तरह
तेरी आँखों की गहराई में फंस के रह गया
जिसके शांत पारदर्शी समुन्दर में
खुला आसमान साफ नज़र आता था
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