अजीब है ये सिलसिला ... चाहता हूँ पढ़ो पर कहता हूँ मत पढ़ो ...
चाहता हूँ की वो सब करो जो नहीं कर सका ... कायर हूँ ... डरपोक हूँ या शायद ...
(कवी का तमगा लगाते हुए तो शर्म आती है) ...
मत पढ़ो मेरी नज़्म
मत पढ़ो की मेरी नज़्म
आग उगलते शब्दों से चुनी
बदनाम गलियों के सस्ते कमरे में बुनी
ज़ुल्म के तंदूर में भुनी
चिपक न जाएं कहीं आत्मा पर
जाग न जाए कहीं ज़मीर
मत पढ़ो की मेरी नज़्म
आवारा है पूनम की लहरों सी
बेशर्म सावन के बादल सी
जंगली खयालों में पनपी
सभ्यता से परे
उतार न दे कहीं झूठे आवरण
मत पढ़ो की मेरी नज़्म
उनकी लटों में उलझी हुई
ज़माने से बे-खबर सोई हुई
बोझिल पलकों से ढलक न जाए
छूते ही गालों को दहक न जाए
बे-सुध न हो तनमन
मत पढ़ो मेरी नज़्म ...
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