क्या बोलते रहना ही संवाद है ... शब्द ही एकमात्र माध्यम है
अपनी बात को दुसरे तक पहुंचाने का ... तो क्या शब्द की उत्पत्ति मनुष्य के साथ से
ही है ... अगर हाँ तो फिर ख़ामोशी ...
ख़ामोशी टुकड़ा नहीं
मुंह में डाला स्वाद ले लिया
ख़ामोशी पान भी नही चबाते रहे अंदर अंदर
जब चाहा थूक दिया कोरी दीवार पर
अपने होने का एहसास दिखाने के लिए
लड़ते रहना होता है अपने आप से निरंतर
दबानी पड़ती है दिल की कशमकश
रोकना होता है आँखों का आइना
बोलता रहता है जो निरंतर
तब कहीं जा कर ख़ामोशी बनाती है अपनी जगह
पाती है नया आकार
बन पाती है खुद अपनी ज़ुबान
हाँ ... तब ही पहुँच पाती है अपने मुकाम पर
जहाँ दो इंच का फांसला तय करने में गुज़र जाए पूरी उम्र
ख़ामोशी चीख है सन्नाटे में
जो आती है दबे पाँव कर जाती है बहरा हमेशा के लिए
ख़ामोशी सच में कोई टुकड़ा नहीं ...
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