तुम ये न समझना की ये कोई उलाहना है ... खुद से की हुई
बातें दोहरानी पढ़ती हैं कई बार ... खुद के होने का एहसास भी तो जरूरी है जीने के लिए ... हवा भर लेना
ही तो नहीं ज़िंदगी ... किसी का एहसास न घुला हो तो साँसें, साँसें कहाँ ...
कितनी बार सपनों को हवा दे कर
यूं ही छोड़ दिया तुमने
वक्त की तन्हाई ने उन्हें पनपने नहीं दिया
दिल से मजबूर मैं
हर बार नए सपने तुम्हारे साथ ही बुनता रहा
हालांकि जानता था उनका हश्र
सांसों से बेहतर कौन समझेगा दिल की बेबसी
चलने का आमंत्रण नहीं
खुद का नियंत्रण नहीं
बस चलते रहो ...
चलते रहो पर कब तक
कहते हैं चार दिन का जीवन
जैसे की चार दिन ही हों बस
उम्र गुज़र जाती है कभी कभी एक दिन जीने में
ऐसे में चार दिन जीने की मजबूरी
वो भी टूटते सपनों के साथ
नासूर बन जाता है जिनका दंश ...
रह रह के उठती पीड़ सोने नहीं देती
और सपने देखने की आदत जागने नहीं देती
उम्र है ... की गुज़रती जाती है इस कशमकश में
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपके विचारों और मार्गदर्शन का सदैव स्वागत है