नींद और यादें ... शायद दुश्मन हैं अनादी काल से ... एक
अन्दर तो दूजा बाहर ... पर क्यों ... क्यों नहीं मधुर स्वप्न बन कर उतर आती हैं यादें
आँखों में ... जंगली गुलाब भी तो ऐसे ही खिल उठता है सुबह के साथ ...
सो गए पंछी घर लौटने के बाद
थका हार दिन, बुझ गया अरब सागर की आगोश में
गहराती रात की उत्ताल तरंगों के साथ
तेरी यादों का शोर किनारे थप-थपाने लगा
आसमान के पश्चिम छोर पे
टूटते तारे को देखते देखते, तुम उतर जाती हो आँखों में
(नींद तो अभी दस्तक भी न दे पाई थी)
“जागते रहो” की आवाज़ के साथ
घूमती है रात, गली की सुनसान सड़कों पर
पर नींद है की नहीं आती
तुम जो होती हो
सुजागी आँखों में अपना कारोबार फैलाए
रात का क्या, यूं ही गुज़र जाती है
और ठीक उस वक़्त
जब पूरब वाली पहाड़ी के पीछे लाल धब्बों की दादागिरी
जबरन मुक्त करती है श्रृष्टि को अपने घोंसले से
छुप जाती हो तुम बोझिल पलकों में
उनींदी आँखों में नीद तो उस वक़्त भी नहीं आती
हाँ ... डाली पे लगा जंगली गुलाब
जाने क्यों मुस्कुराने लगता है उस पल ...
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