क्या सही क्या गलत ... खराब घुटनों के साथ रोज़ चलते रहना ज़िंदगी
की जद्दोजहद नहीं दर्द है उम्र भर का ... एक ऐसा सफ़र जहाँ मरना होता है रोज़ ज़िंदगी को ... ऐसे में ... सही बताना क्या में सही हूँ ...
फुरसत के सबसे पहले लम्हे में
बासी यादों की पोटली लिए
तुम भी चली आना टूटी मज़ार के पीछे
सुख दुःख के एहसास से परे
गुज़ार लेंगे कुछ पल सुकून के
की थोड़ा है ज़िंदगी का बोझ
सुकून के उस एक पल के आगे
कल फिर से ढोना है टूटे कन्धों पर
पत्नी की तार-तार साड़ी का तिरस्कार
माँ की सूखी खांसी की खसक
पिताजी के सिगरेट का धुंवा
बढ़ते बच्चों की तंदुरुस्ती का खर्च
और अपने लिए ...
साँसों के चलते रहने का ज़रिया
नैतिकता की बड़ी बड़ी बातों सोचने का
वक़्त कहाँ देती है ज़िंदगी
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