कविता के लम्बे दौर से निकलने का मन तो नहीं था, फिर लगा कहीं गज़ल लिखना भूल तो नहीं गया ... इसलिए आज ग़ज़ल के साथ हाजिर हूँ आपके बीच ... आशा है सबका स्नेह मिलता रहेगा ...
डूबे ज़रुर आँख के काजल नहीं हुए
कुछ लोग हैं जो इश्क में पागल नहीं
हुए
है आज अपने हाथ में करना है जो करो
कुछ भी न कर सकोगे अगर कल नहीं हुए
अब तक तो हादसों में ये मुमकिन नहीं हुआ
गोली चली हो लोग भी घायल नहीं हुए
आकाश के करीब न मिट्टी के पास ही
अच्छा है आसमान के बादल नहीं हुए
सूरज की रोशनी को वो बांटेंगे किस कदर
सर पर कभी जो धूप के कंबल नहीं हुए
हो प्रश्न द्रोपदी का के सीता की बात
हो
हर युग के कुछ सवाल हैं जो हल नहीं हुए
लाजवाब भाई!
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