वो रौशनी का हर हिसाब लिए बैठा है
जो घर में अपने आफताब लिए बैठा है
इसी लिए के छोड़नी है उसे ये आदत
वो पी नहीं रहा शराब लिए बैठा है
पता है सच उसे मगर वो सुनेगा सब की
वो आईने से हर जवाब लिए बैठा है
वो अजनबी सा बन के यूँ ही निकल जाएगा
वो अपने चहरे पे नकाब लिए बैठा है
दिलों के खेल खेलने की है आदत उसकी
वो आश्की की इक किताब लिए बैठा है
करीब उसके मौत भी न ठहर पाएगी
जो अपने दिल में इन्कलाब लिए बैठा है
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