ये दाव खुद पे लगा दिया है
तुम्हारे ख़त को जला दिया है
तुम्हारी यादों की ईंट चुन कर
मकान पक्का करा दिया है
जहाँ पे टूटा था एक सपना
वहीँ पे पौधा उगा दिया है
शहर में लौटे थे जिसकी खातिर
उसी ने हमको भुला दिया है
समझ रहा था “का” खुद को अब तक
“ख” आईने ने बता दिया है
गुज़रते लम्हों को हंस के जीना
हमें किसी ने सिखा दिया है
उड़ा के काले घने से बादल
हवा ने दिन को सजा दिया है
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