हम उदासी के परों पे दूर तक उड़ते रहे
बादलों पे दर्द
की तन्हाइयाँ लिखते रहे
गर्द यादों की तेरी सेंडिल से घर आती रही
हम तेरा कचरा उठा कर घर सफा करते रहे
तुम बुझा कर
प्यास चल दीं लौट कर देखा नहीं
हम मुनिस्पेल्टी
के नल से बारहा रिसते रहे
कागज़ी फोटो दिवारों
से चिपक कर रह गई
और हम चूने की
पपड़ी की तरह झड़ते रहे
जबकि तेरा हर कदम
हमने हथेली पर लिया
बूट की कीलों सरीखे
उम्र भर चुभते रहे
था नहीं आने का
वादा और तुम आईं नहीं
यूँ ही कल जगजीत
की गज़लों को हम सुनते रहे
बिजलियें, न
बारिशें, ना बूँद शबनम की गिरी
रात छत से टूटते
तारों को हम गिनते रहे
कुछ बड़े थे, हाँ, कभी
छोटे भी हो जाते थे हम
शैल्फ में कपड़ों
के जैसे बे-सबब लटके रहे
उँगलियों के बीच
इक सिगरेट सुलगती रह गई
हम धुंए के बीच
तेरे अक्स को तकते रहे
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपके विचारों और मार्गदर्शन का सदैव स्वागत है