बिगाड़ देता हूँ ज़ुल्फ़ तेरी
नहीं चाहता हवा के सर कोई इलज़ाम
रखना चाहता हूँ तुझपे
बस अपना ही इख़्तियार
क़बूल है क़बूल है
आवारा-पन का जुर्म सो सो बार मुझे
नहीं चाहता
गुज़रे तुझे छू के बादे-सबा
महक उठे कायनात मदहोश खुशब से
साँसों के आगाज़ के साथ रहना चाहता हूँ
तेरी खुशब के इर्द-गिर्द उम्र भर
नहीं चाहता
बदले मौसम का मिज़ाज
टूटे कभी बरसात का लंबा सिलसिला
न ख़त्म होने वाली प्यास तलक
पीना है तुझे कतरा-कतरा
नहीं चाहता ख्वाब का टूटना उम्र भर
अभी अभी खिला है जंगली गुलाब का फूल
देखना है खेल मुहब्बत का
मुश्किल से अभी प्रेम ने अंगड़ाई ली है ...
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