सच कहूं तो हर साल २५ सितम्बर को ही ज़हन में तेरे न होने का ख्याल आता है, अन्यथा बाकी दिन यूँ लगता है जैसे
तू साथ है ... बोलती, उठती, सोती, डांटती, बात करती, प्यार करती
... और मुझे ही क्यों ... शायद सबके साथ ऐसा होता होगा ... माँ का एहसास जो है ...
पिछले छह सालों में जाने कितनी बार कितनी ही बातों, किस्सों
और लम्हों में तुझे याद किया, तुझे महसूस किया ... ऐसा ही एक एहसास जिसको जिया है
सबने ...
मेज़ पर सारी किताबों को सजा देती थी माँ
चार बजते ही सुबह पढने उठा देती थी माँ
वक़्त पे खाना, समय पे नींद, पढना खेलना
पेपरों के दिन तो कर्फ्यू सा लगा देती थी माँ
दूध घी पर सबसे पहले नाम होता था मेरा
रोज़ सरसों तेल की मालिश करा देती थी माँ
शोर थोड़ा सा भी वो बर्दाश करती थी नहीं
घर में अनुशासन सभी को फिर सिखा देती थी माँ
आज भी है याद वो गुज़रा हुआ बचपन मेरा
पाठ हर लम्हे में फिर मुझको पढ़ा देती थी माँ
खुद पे कम, मेहनत पे माँ की था भरोसा पर मुझे
रोज आँखों में नए सपने जगा देती थी माँ
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपके विचारों और मार्गदर्शन का सदैव स्वागत है