अध-लिखे
कागज़ किताबों में दबे ही रह गए
कुछ
अधूरे ख़त कहानी बोलते ही रह गए
शाम
की आगोश से जागा नहीं दिन रात भर
प्लेट
में रक्खे परांठे ऊंघते ही रह गए
रेलगाड़ी सा ये जीवन दौड़ता पल पल रहा
खेत, खम्बे, घर जो छूटे, छूटते ही रह गए
सिलवटों
ने रात के किस्से कहे तकिये से जब
बल्ब
पीली रौशनी के जागते ही रह गए
सुरमई
चेहरा, पसीना, खुरदरे हाथों का “टच”
ज़िन्दगी
बस एक लम्हा, देखते ही रह गए
पल
उबलती धूप के जब पी रही थी दो-पहर
हम
तेरे बादल तले बस भीगते ही रह गए
तुम
धुंए के साथ मेरी ज़िन्दगी पीती रहीं
हम
तुझे सिगरेट समझ कर फूंकते ही रह गए
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