कहाँ से आई कहाँ
चूम के गई झट से
शरारती सी थी
तितली निकल गई ख़ट से
हसीन शोख़ निगाहों
में कुछ इशारा था
न जाने कौन से पल
आँख दब गई पट से
ज़मीं पे आग के
झरने दिखाई देते हैं
गिरी है बूँद सुलगती हुयी तेरी लट से
डरा हुआ सा शहर
है, डरे हुए पंछी
डरा हुआ सा में
खुद भी हूँ अपनी आहट से
लगे थे सब तो
छुडाने में हाथ पर बिटिया
ज़रूरतों में
बुढापे की ले गई हट से
नहीं थे सेर, सवा
सेर से, मिले अब तक
उड़े जो हाथ के
तोते समझ गए चट से
न जाने कौन थी, रिश्ता
था क्या मेरा, फिर भी
थमा गई थी वो ख़त
हाथ में मेरे फट से
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(18-7-21) को "प्रीत की होती सजा कुछ और है" (चर्चा अंक- 4129) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
वाह! बेहद खूबसूरत।
जवाब देंहटाएंहसीन शोख़ निगाहों में कुछ इशारा था
जवाब देंहटाएंन जाने कौन से पल आँख दब गई पट से
क्या बात है !! खत भी फट से पकड़ा गयी । बहुत खूब
वाह बहुत ही खूब आदरणीय ।
जवाब देंहटाएंज़मीं पे आग के झरने दिखाई देते हैं
जवाब देंहटाएंगिरी है बूँद सुलगती हुयी तेरी लट से
वाह!!!
लगे थे सब तो छुडाने में हाथ पर बिटिया
ज़रूरतों में बुढापे की ले गई हट से
क्या बात....
बहुत ही लाजवाब...।
वाह शानदार
जवाब देंहटाएंबेहद शानदार, लाज़वाब वाह सर आपकी गज़लें सबसे अनूठे बिंबों वाली होती है।
जवाब देंहटाएंप्रणाम
सादर