जितनी बार भी देश आता हूँ, पुराने घर की गलियों से गुज़रता हूँ, अजीब सा एहसास होता है जो व्यक्त नहीं हो पाता, हाँ कई बार कागज़ पे जरूर उतर आता है ... अब ऐसा भी नहीं है की यहाँ होता हूँ तो वहां की याद नहीं आती ... अभी भारत में हूँ तो ... अब झेलिये इसको भी ...
कुल्लेदार पठानी
पगड़ी, एक पजामा रक्खा है
छड़ी टीक की, गांधी
चश्मा, कोट पुराना रक्खा है
कुछ बचपन की
यादें, कंचे, लट्टू, चूड़ी
के टुकड़े
परछत्ती के
मर्तबान में ढेर खजाना रक्खा है
टूटे घुटने, चलना
मुश्किल, पर वादा है लौटूंगा
मेरी आँखों में
देखो तुम स्वप्न सुहाना रक्खा है
जाने किस पल छूट
गई थी या मैंने ही छोड़ी थी
बुग्नी जिसमें
पाई, पाई, आना, आना रक्खा है
मुद्दत से मैं
गया नहीं हूँ उस आँगन की चौखट पर
लस्सी का जग, तवे पे अब तक, एक पराँठा रक्खा है
नींद यकीनन आ
जाएगी सर के नीचे रक्खो तो
माँ की खुशबू में
लिपटा जो एक सिराना रक्खा है
अक्स मेरा भी दिख
जाएगा उस दीवार की फोटो में
गहरी सी आँखों
में जिसके एक फ़साना रक्खा है
मिल जाएगी पुश्तैनी घर में मिल कर जो ढूंढेंगे
पीढ़ी दर पीढ़ी से संभला एक ज़माना रक्खा है