स्वप्न मेरे: क्या मिला सचमुच शिखर ...

सोमवार, 26 अगस्त 2019

क्या मिला सचमुच शिखर ...


क्या मिला सचमुच शिखर ?

मिल गए ऐश्वर्य कितने अनगिनत
पञ्च-तारा जिंदगी में हो गया विस्मृत विगत
घर गली फिर गाँव फिर छूटा नगर
क्या मिला सचमुच ...

कर्म पथ पर आ नहीं पाई विफलता
मान आदर पदक लाई सब सफलता
मित्र बिछड़े चल न पाए साथ अपने इस डगर
क्या मिला सचमुच ...

एकला चलता रहा शुभ लक्ष्य पाया
चक्र किन्तु नियति ने ऐसा घुमाया
ले गई किस छोर पे जाने उठाकर ये लहर
क्या मिला सचमुच ...

उम्र के इस मोड़ पर ना साथ कोई
सोचता हूँ फसल ये कैसी है बोई
खो गया वो रास्ता, जाता था जो मेरे शहर 
क्या मिला सचमुच ...

34 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 26 अगस्त 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. कुछ पाने के लिए कुछ खोना तो पड़ता ही है...शिखर की आकांक्षा भीतर अब भी यदि जगी है तो एक न एक दिन मिलेगा ही चाहे कोई कितना ही दूर निकल जाये..सुंदर रचना...

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    1. सच कहा है आपने ... खोने को तैयार होना पड़ता है ...
      बहुत आभार आपका ...

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  3. कुछ हासिल करने का सुख और व्यस्ततम दिनचर्या हमें अपनी जड़ों से दूर कर देती हैं जिसकी कसक सालती है हमें...उस कसक को मर्मस्पर्शी चिन्तन में उतारती खूबसूरत रचना ।

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  4. भाई अभी बहुत जल्दी है...अभी समय है ऐश्वर्य और सफलता को उमंग से मनाइये... एक बार मैं अपनी भतीजी को कुछ ज्ञान दे रहा था... उसने बड़ी पोलाइटली कहा...चाचा जब आप की उम्र के हो जायेंगे तब आपकी बात समझ आयेगी... कोई कहीं नहीं जा रहा है...सब वहीं हैं...बस एक कॉल अवे... सुन्दर रचना...👍👍👍

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    1. जी उमंगों के साथ सच से परिचित रहना भी ठीक रहता है ...
      आभार आपका ...

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  5. क्या मिला सचमुच शिखर। .यक्ष प्रश्न है ये तो | आपने तो समा बाँध दिया बहुत कमाल

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    1. जी इसी का उत्तर सभी खोजते हैं ...
      आभार आपका अजय जी ...

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  6. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (28-08-2019) को "गीत बन जाऊँगा" (चर्चा अंक- 3441) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  7. अंदाज न था
    कब बेखुदी मे
    खुद से बिछडते गये।
    बहुत उम्दा सृजन कीमत चुकानी पड़ती है कामयाबी की भी ।

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  8. @दिगंबर नासवा ji



    हाँ बहुत ही दिनों बाद..... मेरा खुद बहुत समय बाद रेगुलर हो पाया हे यहां आना। .....
    कैसे हैं आप। ... बहुत बहुत शुर्किया आपका... पहले आपके सराहना भरे शब्द बहुत उत्साह बढ़ाये रखते थे

    हम जब इक raah से रोज़ निकलते हैं.. तो साथ में चलने वालों से इक रोज़ उनसे मिल के। .बात क्र के,चेहरे देख कर.. ...फिर जब बहुत दिनों बाद उस राह से फिर गुज़रों और जब वही चेहरे fir dikhen to... इक गहरी से ख़ुशी महसूस होती हे। ..आपका कमेंट पढ़ कर बिलकुल वैसी ही ख़ुशी महसूस हुई। ...

    बहुत धन्यवाद आपका

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    1. ज़ोया जी ... आपकी रचनाएं सीधे दिल को छूती रही हैं ... गुलज़ार की छाया, पर अपना अलग अंदाज़ लिए आपका लेखन पढने वाले को आत्मसात कर लेता है ... अच्छा लगा आपका मेरे ब्लॉग तक दुबारा आना और सिलसिला बनाए रखना ...

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  9. BAHUT WAQT BAAD PDHAA AAPKO...Hmmmm


    उम्र के इस मोड़ पर ना साथ कोई
    सोचता हूँ फसल ये कैसी है बोई

    pr pdh kr lgaa....hum sab ik saa hi safar kr rhe hain..chahe alag ala rston pr..alag alag mnzilon pr...pr....safar sab kaa ik saa hi jaa rhaa he

    soch ko thaam lene waali rchnaa ...

    ye pnktiyaan meri psndidaa :)

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  10. ज़िंदगी किसी भी शिखर को अंतिम शिखर नहीं मानती. चलते रहना ही है. बहुत खूब.

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  11. अंत में यही सबकुछ धरा रह जाना है, हमारे अच्छे कर्म ही यहाँ रह जाते हैं बाकी सब यहीं भोगना होता है
    क्या कुछ नहीं करता इंसान जीने के लिए, नाम के लिए, ऐशोआराम के लिए लेकिन कभी पूरा नहीं होता, अधूरा ही रहता है
    बहुत अच्छी कटु अनुभव पगी रचना

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  12. दिगम्बर भाई, जिंदगी की कड़वी सच्चाई को बहुत ही खूबसूरती स्व व्यक्त किया हैं आपने।

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  13. उम्र के इस मोड़ पर ना साथ कोई
    सोचता हूँ फसल ये कैसी है बोई
    खो गया वो रास्ता, जाता था जो मेरे शहर
    क्या मिला सचमुच ...ये शायद हर किसी की अपनी व्यथा है जिसे आपने शब्द दे दिए। दो मिनट सोचा तो अतीत सामने घूम गया !!

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  14. एक सच्ची बात बताऊँ, आपके ब्लॉग पर बहुत बार आता हूँ... सोचता हूँ कुछ कमेन्ट करूँ... लेकिन जब आता हूँ तब तक इतने कमेन्ट हो चुके होते हैं की लगता है जो मुझे कहंता था वो तो लोगों ने कह दिया है पहले ही... फिर मैं चुपचाप पूरी कविता पढता हूँ... मन ही मन खुश होकर वापस लौट जाता हूँ...

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    1. आपका आना फिर भी अच्छा लगता है संजय जी ...
      आपकी दस्तक ऊर्जा है ...

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  15. आदरणीय दिगम्बर जी , सच कहूं तो ये रचना मुझे बहुत भावुक कर गयी और इस पर लिखने के लिए शब्द ढूंढती रही | शायद प्रगतिवादी चकाचौंध में खोये इस संसार को कहाँ अपने गाँव या बिसरे शहर की याद आती होगी | पर कोई याद करे या ना करे एक कवि अपनी जड़ों को भूल जाए तो वह नहीं हो सकता |

    ये प्रश्न अनुत्तरित ही रहा --

    खो गया वो रास्ता, जाता था जो मेरे शहर

    क्या मिला सचमुच ..
    आजीविका और अपने अधूरे सपनों को लेकर हर इंसान जब अपने गाँव , शहर से दूर चला जाता है तो एक वादा खुद से करके जाता है कि एक दिन वह जरुर वापिस आयेगा पर
    वापिसी के समय , वापिसी की पगडंडीया खो जाती हैं जो शायद कभी नहीं मिलती | बेहद सराहनीय और अतंस को छू जाने वाला सृजन जिसके लिए मेरी हार्दिक शुभकामनायें | सादर

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    1. रेणु जी ... आपके कथन ने कई गांठों को जो मन में कहीं दबी रहती हैं, एक पल में खोल दिया है ...
      में विगत २० वर्षों से भारत से दूर रह रहा हूँ ... हालांकि हर ३-४ मनिमों में अपने शहर आता रहता हूँ ... और सभी पुराने दोस्त, पुरानी जगहों, पुराने ठेले वालों पे जा के आज भी खाता हूँ पर ये एक सच को भी हर बार महसूस करता हूँ की उस रफ़्तार को जो अपने देश समाज में आ रही है पकड़ नहीं पाता ... शायद में निकला तो मेरी रफ़्तार उस समाज, देश के साथ थम गई और कहीं और की रफ़्तार मैंने पकड़ ली ... और आअज जब जब जाता हूँ कहीं न कहीं छोड़े हुए लम्हे से, उसी रस्ते से शुरुआत करना चाहता हूँ जो नहीं मिलता ... एक छटपटाहट महसूस होती है ... चाहे कुछ दिन ही सही पर रहती है मन में ... शायद ये हर भारत वासी जो विदेश में बसा है उसके मन की बात हो ... हो सकता है न भी हो ... पर ...
      आपका आभार मेरी रचना को विस्तार देने के लिए ...
      एक गीत याद आ रहा है ...
      "कभी फुर्सत में सोचेंगे भला क्या, क्या बुरा ... ज़िन्दगी ख्वाब है ... "

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आपके विचारों और मार्गदर्शन का सदैव स्वागत है