दिन उगा सूरज की बत्ती जल गई
रात की काली स्याही ढल गई
सो रहे थे बेच कर घोड़े, बड़े
और छोटे थे उनींदे से खड़े
ज़ोर से टन-टन बजी कानों में जब
धड-धड़ाते बूट, बस्ते, चल पड़े
हर सवारी आठ तक निकल गई
रात की काली ...
कुछ बुजुर्गों का भी घर में ज़ोर था
साथ कपड़े, बरतनों का शोर था
माँ थी सीधी ये समझ न पाई थी
बाई के नखरे थे, मन में चोर था
काम, इतना काम, रोटी जल गई
रात की काली ...
ढेर सारे काम बाकी रह गए
ख्वाब कुछ गुमनाम बाकी रह गए
नींद पल-दो-पल जो माँ को आ गई
पल वो उसके नाम बाकी रह गए
घर, पती, बच्चों, की खातिर गल
गई
रात की काली ...
सब पढ़ाकू थे, में कुछ पीछे रहा
खेल मस्ती में मगर, आगे रहा
सर पे आई तो समझ में आ गया
डोर जो उम्मीद की थामे रहा
जंग लगी बन्दूक इक दिन चल गई
रात की काली ...
सो रहे थे बेच कर घोड़े, बड़े
जवाब देंहटाएंऔर छोटे थे उनींदे से खड़े
ज़ोर से टन-टन बजी कानों में जब
धड-धड़ाते बूट, बस्ते, चल पड़े ...
बहुत खूब !! आम दिनचर्या का बहुत सुन्दर शब्द चित्र !! बेहतरीन सृजनात्मकता । दीपावली पर्व की हार्दिक
शुभकामनाएँ ।
आभार मीना जी
हटाएंवाह! वाकई, दिगंबर के हाथों रात की काली स्याही ढल गयी। बधाई और आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार सर
हटाएंसर पे आई तो समझ में आ गया
जवाब देंहटाएंडोर जो उम्मीद की थामे रहा
जंग लगी बन्दूक इक दिन चल गई....
हमारी पीढ़ी इसी तरह पढ़कर, परिस्थितियों से लड़कर आगे बढ़ी है। संवेदना और श्रम का अद्भुभुत संगम है हमारी पीढ़ी जो अपने बड़ों के संघर्ष का भी संज्ञान रखती है। बहुत सुंदर रचना दिगंबर सर।
बहुत आभार आपका
हटाएंदीपोत्सव पर अशेष शुभेच्छाएँ आपको एवं आपके समस्त परिवार को।
जवाब देंहटाएंजी शुक्रिया ...
हटाएंवाह लाजवाब हमेशा की तरह। शुभकामनाएं दीप पर्व की।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सर ...
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 28 अक्टूबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएं🙏🙏🙏
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-10-2019) को "भइया-दोयज पर्व" (चर्चा अंक- 3503) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
-- दीपावली के पंच पर्वों की शृंखला में गोवर्धनपूजा की
हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
🙏🙏🙏
हटाएंअरे! वाह। बहुत बढ़िया। लाजवाब।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार
हटाएंरात की काली स्याही से लेकर दिन के उजाले तक का सफर.. सीधी-सादी अम्मा से लेकर नखरे वाली बाई तक सब कुछ समेट दिया आपने इस शानदार कविता में जब एक काली रात गुजर जाती है और दिन का उजियारा फैलता है तो हर घर में ऐसे ही कहानियां चलती है ऐसे ही किरदार जीवन रूपी पहिए को या तो उलझ कर या तालमेल बिठाकर आगे ले जाते हैं ....यह हमारे आम भारतीय परिवारों की आम समस्या है! अलग ही प्रकार कि आनंद की की अनुभूति हुई बहुत अच्छा लिखा आपने..!!
जवाब देंहटाएंआभार आपका अनीता जी ...
हटाएं
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना 30 अक्टूबर 2019 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत आभार पम्मी जी...
हटाएंदिन उगा सूरज की बत्ती जल गई
जवाब देंहटाएंरात की काली स्याही ढल गई
वाह! सूरज की बत्ती जलना और रात की काली स्याही का ढलना में बहुत अच्छी अनुपम उपमा देखने को मिली
माँ सबसे आगे रहती है सबके लिए लेकिन अपने लिए सबसे पीछे
बहुत प्यारी यादें
जी माँ बन के ही असा सम्भव है ... नमन हर माँ को ...
हटाएंनींद पल-दो-पल जो माँ को आ गई
जवाब देंहटाएंपल वो उसके नाम बाकी रह गए
घर, पती, बच्चों, की खातिर गल गई
रात की काली ...माँ शायद किसी विचित्र तत्वों से बनी होती है ! पूरी घर गृहस्थी उसके इर्द गिर्द ही घूमती है ! सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बहुत साधुवाद आपको
जी क्या कहने हैं माँ के ...
हटाएंआभार आपका ...
दिन उगते ही कितने ही काम करने होते हैं
जवाब देंहटाएंमां ही सारे काम बिना थके करती है
लेकिन उसके होते हुए हमें इसका अहसास नहीं होता।
उम्मीद और लगातार संघर्ष कायम रहे तो जंग लगी बंदूक भी चल ही जाती है।
दिन भर के ज़बरदस्त अहसास को संजो दिया है रचना में आपने
यहाँ स्वागत है 👉👉 कविता
जी रोहितास जी ...
हटाएंबहुत आभार आपका ...
वाह !बेहतरीन सृजन आदरणीय.
जवाब देंहटाएंवाकई रात काली ढल गयी...
सादर
बहुत आभार अनीता जी ...
हटाएंजज्बातों से लबालब है आपकी रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार संजय जी ...
हटाएंसर पे आई तो समझ में आ गया
जवाब देंहटाएंडोर जो उम्मीद की थामे रहा
जंग लगी बन्दूक इक दिन चल गई
वाह!!!
बहुत ही सहज सरल शब्दों में जीवनदर्शन कराती लाजवाब भावाभिव्यक्ति...
घर परिवार माँ बाई और सबके अपने अपने कामों में मशगूल होना ....उन्हीं से सीख लेकर छोटे भी समय आने पर अपने कर्तव्य समझ ही लेते हैं
बहुत ही लाजवाब रचना
बहुत आभार सुधा जी ...
हटाएंबहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति. माँ जैसा प्राकृतिक उपहार दूसरा कोई नहीं.
जवाब देंहटाएंसच कहा है आपने ...
हटाएंआभार आपका ...
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हटाएंढेर सारे काम बाकी रह गए
जवाब देंहटाएंख्वाब कुछ गुमनाम बाकी रह गए
नींद पल-दो-पल जो माँ को आ गई
पल वो उसके नाम बाकी रह गए
घर, पती, बच्चों, की खातिर गल गई
रात की काली ...
क्या बात है !!!जीवन के अलग अलग स्मृति चित्र सहेजती रचना | सराहना से परे | आपका लेखन अपनी मिसाल आप है | आभार और नमन |
रोज़ के पल जो गुज़रते हैं वो अपने आप में प्राकृति की रचना ही होती है ... उन्हें किसी भी कला में उतार सकें तो जीवंत हो उठते हैं वो ... आपका बहुत आभार ...
हटाएंक्या आपको वेब ट्रैफिक चाहिए मैं वेब ट्रैफिक sell करता हूँ,
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