कहाँ खिलते हैं फूल रेगिस्तान में ... हालांकि पेड़ हैं जो
जीते हैं बरसों बरसों नमी की इंतज़ार में ... धूल है की साथ छोड़ती नहीं ... नमी है
की पास आती नहीं ... कहने को सागर साथ है पीला सा ...
मैंने चाहा तेरा हर दर्द
अपनी रेत के गहरे समुन्दर में लीलना
तपती धूप के रेगिस्तान में मैंने कोशिश की
धूल के साथ उड़ कर
तुझे छूने का प्रयास किया
पर काले बादल की कोख में
बेरंग आंसू छुपाए
बिन बरसे तुम गुजर गईं
आज मरुस्थल का वो फूल भी मुरझा गया
जी रहा था जो तेरी नमी की प्रतीक्षा में
कहाँ होता है चाहत पे किसी का बस ...
ओह..बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति सर।
जवाब देंहटाएंहर शब्द गहरे भाव और घाव से भरे हुये हैं।
बहुत आभार श्वेता जी ...
हटाएंयह कविता पाठक को सूने आकाश की ओर निहारने के लिए विवश कर देती है...निःशब्द ।
हटाएंbahut abhar Mahendra ji ...
हटाएंतड़पती रूह की आवाज़ ! रेत के समंदर में किसी के दर्द को खत्म कर देने की चाहत ! ये महज शब्दों का खेल नहीं है ! कभी कभी भावनाओं का ज्वार शब्दों की पकड़ से बाहर चले जाते हैं !
जवाब देंहटाएंलेकिन कमाल की अभिव्यक्ति है आदरणीय दिगम्बर सर की ! भावनाओं और शब्दों के बीच गजब का संतुलन ।
प्यार में प्रतीक्षा किसी साधना से कम होती है क्या !
तडपता हुआ रेगिस्तान प्रेयसी रूपी बादल का इंतजार करता है ! लम्बे समय से ! सिर्फ एक नमी के लिए ! अहा !! बिन बरसे गुजर जाना कितना आहत करता है ! कितना निराश करता है !
एकतरफा मुहब्बत की दास्तान भी अजीब होती है !
कम शब्दों में बड़ी बात कहना भी एक कला होती है ! इसमें माहिर हैं आप ।
बहुत ही खूबसूरत रचना की प्रस्तुति हुई है । बहुत खूब आदरणीय ।
राजेश जी ... आज आपसे बात कर के दूरी का एह्सास जैसे खत्म हो गया ... आप क यहाँ तक आना मेरे लिये सम्मान है ... बहुत आभार आपका ...
हटाएंउम्दा
जवाब देंहटाएंआभार सर
हटाएंबिन बरसे तुम गुजर गईं
जवाब देंहटाएंवाह।
दुनिया के सारे आशिक़ों के दर्द को जुबान दे दी अपने।
अगर वो बरस भी जाते तो प्यासा ही राह गये होते हम।
शुक्रिया ज़फ़र साहब
हटाएंआज मरुस्थल का वो फूल भी मुरझा गया
जवाब देंहटाएंजी रहा था जो तेरी नमी की प्रतीक्षा में
चाहत और प्रतीक्षा का ऐसा हिसाब!!!
बहुत ही हृदयस्पर्शी सृजन जिसमे एक कसक जो सीधे दिल तक पहुँचती है
विचारोत्तेजक मार्मिक सृजन हेतु बहुत बहुत बधाई आपको।
आभार सुधा जी 🙏🙏🙏
हटाएंधूल है की साथ छोड़ती नहीं ... नमी है की पास आती नहीं ... कहने को सागर साथ है पीला सा ...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब !!
शब्द कम हैं तारीफ के लिए ...अद्भुत सृजन !!!
आभार मीना जी
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (01-04-2020) को "कोरोना से खुद बचो, और बचाओ देश" (चर्चाअंक - 3658) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
मित्रों!
आजकल ब्लॉगों का संक्रमणकाल चल रहा है। ऐसे में चर्चा मंच विगत दस वर्षों से अपने चर्चा धर्म को निभा रहा है।
आप अन्य सामाजिक साइटों के अतिरिक्त दिल खोलकर दूसरों के ब्लॉगों पर भी अपनी टिप्पणी दीजिए। जिससे कि ब्लॉगों को जीवित रखा जा सके।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत शुक्रिया सर
हटाएंहृदयस्पर्शी सृजन ,सादर नमन आपको
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका
हटाएंबहुत खूब।
जवाब देंहटाएंआभार सुशील की
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंशुक्रिया जी
हटाएंमन को छू गई रचना. बधाई.
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका ...
हटाएंआदरणीया/आदरणीय आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर( 'लोकतंत्र संवाद' मंच साहित्यिक पुस्तक-पुरस्कार योजना भाग-२ हेतु नामित की गयी है। )
जवाब देंहटाएं'बुधवार' ०८ अप्रैल २०२० को साप्ताहिक 'बुधवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य"
https://loktantrasanvad.blogspot.com/2020/04/blog-post_8.html
https://loktantrasanvad.blogspot.in/
टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'बुधवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'
बहुत आभार एकलव्य जी ...
हटाएंआज मरुस्थल का वो फूल भी मुरझा गया
जवाब देंहटाएंजी रहा था जो तेरी नमी की प्रतीक्षा में....मन जब भी उदास होता है तो आपको पढता हूँ ...अच्छा लगता है ...दुनियां ही दुखी है ...और मैं भी ..ऐसे में आपके शब्द पता नहीं कैसे लेकिन खुश होने का एक कारण तो बनते ही हैं
आपका आभार है इस मान के लिए ...
हटाएंजब चाहत मजबूरियों से टकराती है
जवाब देंहटाएंजब जीवित बैचेनियों की कब्रगाह स्वयं ही हों...
तब बनती है ऐसी कविता. लाजवाब
आभार रोहितास जी ...
हटाएं
जवाब देंहटाएंपर काले बादल की कोख में
बेरंग आंसू छुपाए
बिन बरसे तुम गुजर गईं
आज मरुस्थल का वो फूल भी मुरझा गया
जी रहा था जो तेरी नमी की प्रतीक्षा में
कहाँ होता है चाहत पे किसी का बस ...
क्या बात है ?बेहतरीन रचना ,नमन आपको
आभार ज्योति जी
हटाएंInterpersonal Relationship
जवाब देंहटाएंआदरणीया/आदरणीय आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर( 'लोकतंत्र संवाद' मंच साहित्यिक पुस्तक-पुरस्कार योजना भाग-२ हेतु इस माह की चुनी गईं नौ श्रेष्ठ रचनाओं के अंतर्गत नामित की गयी है। )
जवाब देंहटाएं'बुधवार' २२ अप्रैल २०२० को साप्ताहिक 'बुधवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य"
https://loktantrasanvad.blogspot.com/2020/04/blog-post_22.html
टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'बुधवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'
बहुत आ हर आपका ...
हटाएं