हम सवालों के जवाबों में ही बस उलझे रहे ,
प्रश्न अन-सुलझे नए वो रोज़ ही बुनते रहे.
हम उदासी के परों पर दूर तक उड़ते रहे,
बादलों पे दर्द की तन्हाइयाँ लिखते रहे .
गर्द यादों की तेरी “सेंडिल” से घर आती रही,
रोज़ हम कचरा उठा कर घर सफा करते रहे.
रोज़ हम कचरा उठा कर घर सफा करते रहे.
तुम बुझा कर प्यास चल दीं लौट कर देखा नहीं,
हम “मुनिस्पेल्टी” के नल से बारहा रिसते रहे.
हम “मुनिस्पेल्टी” के नल से बारहा रिसते रहे.
कागज़ी फोटो दिवारों से चिपक कर रह गई,
और हम चूने की पपड़ी की तरह झरते रहे.
और हम चूने की पपड़ी की तरह झरते रहे.
जबकि तेरा हर कदम हमने हथेली पर लिया,
बूट की कीलों सरीखे उम्र भर चुभते रहे.
बूट की कीलों सरीखे उम्र भर चुभते रहे.
था नहीं आने का वादा और तुम आई नहीं,
यूँ ही कल जगजीत की ग़ज़लों को हम सुनते रहे.
यूँ ही कल जगजीत की ग़ज़लों को हम सुनते रहे.
कुछ बड़े थे, हाँ, कभी छोटे भी हो जाते थे हम,
शैल्फ में कपड़ों के जैसे बे-सबब लटके रहे.
शैल्फ में कपड़ों के जैसे बे-सबब लटके रहे.
उँगलियों के बीच में सिगरेट सुलगती रह गई,
हम धुंवे के बीच तेरे अक्स को तकते रहे.
लाजवाब हमेशा की तरह। शुभकामनाएं हिन्दी दिवस की।
जवाब देंहटाएंथा नहीं आने का वादा और तुम आई नहीं,
जवाब देंहटाएंयूँ ही कल जगजीत की ग़ज़लों को हम सुनते रहे.
वाह !! बहुत उम्दा.. लाज़वाब ग़ज़ल ।
हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं ।
हमेश की तरह बहुत सुंदर प्रस्तूति।
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 15 सितंबर 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
उँगलियों के बीच में सिगरेट सुलगती रह गई,
जवाब देंहटाएंहम धुंवे के बीच तेरे अक्स को तकते रहे.,,,,,,,,बहुत ख़ूबसूरत,लाजवाब
गर्द यादों की तेरी “सेंडिल” से घर आती रही,
जवाब देंहटाएंरोज़ हम कचरा उठा कर घर सफा करते रहे.
तुम बुझा कर प्यास चल दीं लौट कर देखा नहीं,
हम “मुनिस्पेल्टी” के नल से बारहा रिसते रहे.
वाह ! एक ही साँस में बहुत कुछ कह जाते हैं आप!
जवाब देंहटाएंतुम बुझा कर प्यास चल दीं लौट कर देखा नहीं,
हम “मुनिस्पेल्टी” के नल से बारहा रिसते रहे.
कागज़ी फोटो दिवारों से चिपक कर रह गई,
और हम चूने की पपड़ी की तरह झरते रहे.
वाह ! नए नए बिम्बों से सजी बेहद उम्दा गजल !!
हम उदासी के परों पर दूर तक उड़ते रहे,
जवाब देंहटाएंबादलों पे दर्द की तन्हाइयाँ लिखते रहे .
वाह!! लाजवाब प्रस्तुति आदरणीय।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (16-09-2020) को "मेम बन गयी देशी सीता" (चर्चा अंक 3826) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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था नहीं आने का वादा और तुम आई नहीं,
जवाब देंहटाएंयूँ ही कल जगजीत की ग़ज़लों को हम सुनते रहे.
वाह!!!
उँगलियों के बीच में सिगरेट सुलगती रह गई,
हम धुंवे के बीच तेरे अक्स को तकते रहे.
कमाल की गजल....एक से बढ़कर एक शेर...लाजवाब हमेशा की तरह।
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंजीवन के विभिन्न पड़ाव पर आने वाली कई कशमकश को बेहतरीन ढंग से पंक्तिबद्ध किया गया है।
जवाब देंहटाएंबढ़िया लिखा है आपने। प्रशंसनीय।
एकांत को बूझती नज़म. इसने तो झुरझुरी छेड़ दी-
जवाब देंहटाएंकागज़ी फोटो दिवारों से चिपक कर रह गई,
और हम चूने की पपड़ी की तरह झरते रहे.
बड़ा कमाल कमाल का बिम्ब। बहुत उम्दा। दाद स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर हर बंद लाजवाब 👌
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं"था नहीं आने का वादा और तुम आई नहीं, यूं ही कल जगजीत की ग़ज़लों को हम सुनते रहे"सुखद एहसास का अनुभव हुआ
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंहर बार वाह-वाह लिखना ही रह पाता है.. क्योंकि शब्द, भाव तो आप अपनी रचनाओं में लाज़वाब दिखा देते हैं कि और कुछ कहने लायक बचता नहीं.
जवाब देंहटाएंथा नहीं आने का वादा और तुम आई नहीं,
जवाब देंहटाएंयूँ ही कल जगजीत की ग़ज़लों को हम सुनते रहे....मन प्रसन्न हो गया !!