जगमग बुलंदियों पे ही ठहरे नहीं हैं हम ...
बहला रहे हो झूठ से पगले नहीं हैं हम.
बोलो न बात जोर
से बहरे नहीं हैं हम.
हमसे जो खेलना हो
संभल कर ही खेलना,
शतरंज पे फरेब के
मोहरे नहीं हैं हम.
सोने सी लग रही हैं ये सरसों की बालियाँ,
तो क्या है जो
किसान सुनहरे नहीं हैं हम.
हरबार बे-वजह न
घसीटो यहाँ वहाँ,
मसरूफियत है,
इश्क़ में फुकरे नहीं हैं हम.
मुश्किल हमारे
दिल से उभरना है डूब के,
हैं पर समुंदरों
से तो गहरे नहीं हैं हम.
गुमनाम बस्तियों
में गुजारी है ज़िन्दगी,
जगमग बुलंदियों
पे ही ठहरे नहीं हैं हम.
सोने सी लग रही हैं ये सरसों की बालियाँ,
जवाब देंहटाएंतो क्या है जो किसान सुनहरे नहीं हैं हम.
बहुत खूब कहा है.
वाह
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंवाह सुन्दर भाव
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (25-11-2020) को "कैसा जीवन जंजाल प्रिये" (चर्चा अंक- 3896) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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मुश्किल हमारे दिल से उभरना है डूब के,
जवाब देंहटाएंहैं पर समुंदरों से तो गहरे नहीं हैं हम.
गुमनाम बस्तियों में गुजारी है ज़िन्दगी,
जगमग बुलंदियों पे ही ठहरे नहीं हैं हम.
......बहुत ख़ूब..।सुंदर अभिव्यक्ति..।
वाह ! बहुत खूब, बनी रहे यह मसफूरियत..
जवाब देंहटाएंमुश्किल हमारे दिल से उभरना है डूब के,
जवाब देंहटाएंहैं पर समुंदरों से तो गहरे नहीं हैं हम....
जबरदस्त
सोने सी लग रही हैं ये सरसों की बालियाँ,
जवाब देंहटाएंतो क्या है जो किसान सुनहरे नहीं हैं हम.,,,,,,, बहुत ख़ूब ।