रेशा-रेशा जो कभी हम उधड़ गए होते ...
पाँव बादल पे उसी रोज़ पड़ गए होते.
पीठ पर हम जो परिन्दों के चढ़ गए होते.
जिस्म पत्थर है निकल जाता आग का दरिया,
एक पत्थर से कभी हम रगड़ गए होते.
ढूँढ़ते लोग किसी फिल्म की कहानी में,
घर से बचपन में कभी हम बिछड़ गए होते.
फिर से उम्मीद नई एक बंध गई होती,
वक़्त पे डाल से पत्ते जो झड़ गए होते.
आँधियाँ तोड़ न पातीं कभी जड़ें अपनी,
घास बन कर जो ज़मीनों में गढ़ गए होते.
ढूँढ ही लेते हमें ज़िन्दगी के किस्सों में,
वक़्त के गाल पे चाँटा जो गढ़ गए होते.
बन के रह जाती किसी रोज़ ज़िन्दगी उलझन,
रेशा-रेशा जो कभी हम उधड़ गए होते.
बन के रह जाती किसी रोज़ ज़िन्दगी उलझन,
जवाब देंहटाएंरेशा-रेशा जो कभी हम उधड़ गए होते.
बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल आदरणीय।
लाजवाब
जवाब देंहटाएंआँधियाँ तोड़ न पातीं कभी जड़ें अपनी,
जवाब देंहटाएंघास बन कर जो ज़मीनों में गढ़ गए होते.
नासवा जी....लाजवाब शेर.
हर शेर पढ़के वाह कहने का मन है,बहुत सुंदर,सोच रही थी इतनी लाजवाब गजल लिखते कैसे हैं ।।।
जवाब देंहटाएंरेशा-रेशा जो कभी हम उधड़ गए होते ...
पाँव बादल पे उसी रोज़ पड़ गए होते.
पीठ पर हम जो परिन्दों के चढ़ गए होते.
जिस्म पत्थर है निकल जाता आग का दरिया,
एक पत्थर से कभी हम रगड़ गए होते...बहुत खूब ।।।
क्या बात, बहुत सुन्दर!!!
जवाब देंहटाएंगज़ब सर...
जवाब देंहटाएंहर शेर बेहद उम्दा।
सादर।
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (२१-०४-२०२१) को 'प्रेम में होना' (चर्चा अंक ४०४३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत ही सुन्दर
जवाब देंहटाएंआँधियाँ तोड़ न पातीं कभी जड़ें अपनी,
जवाब देंहटाएंघास बन कर जो ज़मीनों में गड़ गए होते.
वाह ! जो झुकना जानता है वही सुरक्षित रहता है, बेहतरीन अंदाज, जीवन के छोटे छोटे लम्हों के चित्रण से सुंदर बोध देते शेर !
बन के रह जाती किसी रोज़ ज़िन्दगी उलझन,
जवाब देंहटाएंरेशा-रेशा जो कभी हम उधड़ गए होते.
पूरी ग़ज़ल ही कमाल है ... ज़मीन से जुड़े लोगों को कोई आंधी नहीं डिगा सकती ... और पतझर के बाद ही तो बसंत आता है .... गर खुद ही उधडे होते तो उलझने तो बढ़नी ही थीं ... बहुत खूब ... हर शेर बस वाह ...
आँधियाँ तोड़ न पातीं कभी जड़ें अपनी,
जवाब देंहटाएंघास बन कर जो ज़मीनों में गढ़ गए होते.
लाजवाब..,बेहतरीन ग़ज़ल।
रामनवमी की हार्दिक शुभकामनाएं।
हर शेर बहुत सुन्दर, उम्दा गज़ल, जिस्म पत्त्थर है निकल जाता आग का दरिया....वाह
जवाब देंहटाएंआँधियाँ तोड़ न पातीं कभी जड़ें अपनी,
जवाब देंहटाएंघास बन कर जो ज़मीनों में गढ़ गए होते.
वाह !! बहुत खूब,हमेशा की तरह एक-एक शेर लाज़बाब ,सादर नमन आपको
वाह! लाज़वाब!!!
जवाब देंहटाएंवाह!बहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएं--
श्री राम नवमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।
--
मित्रों पिछले तीन दिनों से मेरी तबियत ठीक नहीं है।
खुुद को कमरे में कैद कर रखा है।
बहुत ही सुंदर गजल।
जवाब देंहटाएंफिर से उम्मीद नई एक बंध गई होती,
जवाब देंहटाएंवक़्त पे डाल से पत्ते जो झड़ गए होते.
वाह!!!
आँधियाँ तोड़ न पातीं कभी जड़ें अपनी,
घास बन कर जो ज़मीनों में गढ़ गए होते.
कमाल की गजल...।
एक से बढ़कर एक शेर!!!
लाजवाब...
फिर से उम्मीद नई एक बंध गई होती,
जवाब देंहटाएंवक़्त पे डाल से पत्ते जो झड़ गए होते.
बहुत खूब।
आँधियाँ तोड़ न पातीं कभी जड़ें अपनी,
जवाब देंहटाएंघास बन कर जो ज़मीनों में गढ़ गए होते.
ढूँढ ही लेते हमें ज़िन्दगी के किस्सों में,
वक़्त के गाल पे चाँटा जो गढ़ गए होते.
बहुत ख़ूब
बन के रह जाती किसी रोज़ ज़िन्दगी उलझन,
जवाब देंहटाएंरेशा-रेशा जो कभी हम उधड़ गए होते.
सच सीवन मजबूत हो तो रेशा-रेशा उधड़ने का भय नहीं सताता, बिंदास जीता है इंसान
हर बार की तरह बेहतरीन रचना
मर्मस्पर्शी अभिव्यंजना स्तब्ध कर रही है । उम्दा अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंख्वाहिशों का मेला है यह ग़ज़ल... नासवा साहब कमाल है!!
जवाब देंहटाएंवाह वाह, बहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंवाह । बहुत ही सुन्दर
जवाब देंहटाएंढूँढ़ते लोग किसी फिल्म की कहानी में,
जवाब देंहटाएंघर से बचपन में कभी हम बिछड़ गए होते...
ये तो मैंने भी कई बार सोचा है...क्या होता अगर मैं बचपन में किसी मेले में खो गई होती?
आँधियाँ तोड़ न पातीं कभी जड़ें अपनी,
घास बन कर जो ज़मीनों में गढ़ गए होते....
बहुत खूब संदेश। बेहतरीन ग़ज़ल हर बार की तरह...
पाँव बादल पे उसी रोज़ पड़ गए होते.
जवाब देंहटाएंपीठ पर हम जो परिन्दों के चढ़ गए होते.
जिस्म पत्थर है निकल जाता आग का दरिया,
एक पत्थर से कभी हम रगड़ गए होते.
ढूँढ़ते लोग किसी फिल्म की कहानी में,
घर से बचपन में कभी हम बिछड़ गए होते.
बन के रह जाती किसी रोज़ ज़िन्दगी उलझन,
रेशा-रेशा जो कभी हम उधड़ गए होते.
वाह