सात घोड़ों में जुता सूरज सुबह आता रहा.
धूप का भर भर कसोरा सर पे बरसाता रहा.
काग़ज़ी फूलों पे तितली उड़ रही इस दौर में,
और भँवरा भी कमल से दूर मंडराता रहा.
हम सफ़र अपने बदल कर वो तो बस चलते रहे,
और मैं उनकी डगर में फूल बिखराता रहा.
एक दिन काँटा चुभा पगडंडियों में हुस्न की,
ज़िन्दगी भर रहगुज़र में इश्क़ तड़पाता रहा.
ख़ास है कुछ आम सा तेरा तबस्सुम दिलरुबा,
उम्र भर जो ज़िन्दगी में रौशनी लाता रहा.
इश्क़ में मसरूफ़ थे कंकड़ उछाला ही नहीं,
झील के तल में उतर कर चाँद सुस्ताता रहा.
एक दिन यादों की बुग्नी से निकल कर माँ मिली,
और बच्चा बन के मैं बाहों में इतराता रहा.
शनिवार, 7 अगस्त 2021
और बच्चा बन के मैं बाहों में इतराता रहा ...
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लाजवाब
जवाब देंहटाएंसच मां की गोद में सर रखकर जो सुकून मिलता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
एक दिन यादों की बुग्नी से निकल कर माँ मिली,
जवाब देंहटाएंऔर बच्चा बन के मैं बाहों में इतराता रहा.
यादों में भी माँ आ जाय तो मन बच्चा ही हो जाता है ।
बेहतरीन ग़ज़ल ।
बहुत सुन्दर गजल
जवाब देंहटाएंएक दिन यादों की बुग्नी से निकल कर माँ मिली,
जवाब देंहटाएंऔर बच्चा बन के मैं बाहों में इतराता रहा.
सच सारे दुःख-दर्द मिटने लगते हैं जब माँ किसी भी रूप में हमारे सामने डटकर खड़ी हो जाती है
हर बार की तरह बहुत सुन्दर। .
और बच्चा बनकर मैं बाहों में इतराता रहा। वाह! क्या खूब लिखा है सर। सादर
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना सोमवार 9 ,अगस्त 2021 को साझा की गई है ,
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
सबसे अलग अंदाज़ में लिखी गयी
जवाब देंहटाएंआपकी बेहतरीन गज़ल।
हर बंध बहुत अच्छा है।
प्रणाम सर
सादर।
इश्क़ में मसरूफ़ थे कंकड़ उछाला ही नहीं,
जवाब देंहटाएंझील के तल में उतर कर चाँद सुस्ताता रहा.
बहुत सुन्दर…👏👏
बड़ा बन के देख लिये जिंदगी के हादसे
जवाब देंहटाएंबच्चा बन के मन यूँ ही खेलता-गाता रहा
बेहतरीन गजल
जवाब देंहटाएंएक दिन यादों की बुग्नी से निकल कर माँ मिली,
और बच्चा बन के मैं बाहों में इतराता रहा...कितनी सुंदर पंक्तियां हैं,मन बच्चा हो गया। शानदार गज़ल।
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर गजल
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंएक दिन यादों की बुग्नी से निकल कर माँ मिली,
जवाब देंहटाएंऔर बच्चा बन के मैं बाहों में इतराता रहा./// हमेशा की तरह मन को असीम आनंद से भरने वाली रचना दिगम्बर जी | ये शेर तो हीरे सरीखे है | माँ पर लिखने में मानो आत्मा का सम्पूर्ण तत्व उड़ेल देते हैं आप |
इश्क़ में मसरूफ़ थे कंकड़ उछाला ही नहीं,
जवाब देंहटाएंझील के तल में उतर कर चाँद सुस्ताता रहा.
वाह वाह!!!!
एक दिन यादों की बुग्नी से निकल कर माँ मिली,
और बच्चा बन के मैं बाहों में इतराता रहा./
हमेशा की तरह अद्भुत एवं लाजवाब।
वाह!!!
एक दिन यादों की बुग्नी से निकल कर माँ मिली,
जवाब देंहटाएंऔर बच्चा बन के मैं बाहों में इतराता रहा.
वैसे तो सभी शेर लाज़बाब है पर आखिरी में तो माँ के गोद में लाकर सुकून दिला दी आपने ...शानदार... सादर नमन आपको
बेमिसाल अशआरों में सजी लाज़वाब ग़ज़ल ।
जवाब देंहटाएंवाह! यादों की बुन्गी , लाजवाब गजल हर शेर उम्दा कुछ कहता सा।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन।
वाह बेहतरीन शायरी ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन सृजन
जवाब देंहटाएंएक दिन यादों की बुग्नी से निकल कर माँ मिली,
जवाब देंहटाएंऔर बच्चा बन के मैं बाहों में इतराता रहा.,,,,,…,माँ की ममता और बच्चे का माँ के लिए प्यार दोनों का अदभुत संगम है आप की इन लाईनो में,बेहतरीन रचना, आदरणीय शुभकामनाएँ ।
आपकी लिखी कोई पुरानी रचना सोमवार 23 ,अगस्त 2021 को साझा की गई है ,
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
इश्क़ में मसरूफ़ थे कंकड़ उछाला ही नहीं,
जवाब देंहटाएंझील के तल में उतर कर चाँद सुस्ताता रहा.
बहुत शानदार