हिसाब कुछ लम्हों का ...
जल्द ही ओढ़ लेगा सन्यासी चुनर
की रात का गहराता साया
मेहमान बन के आता है रौशनी के शहर
मत रखना हिसाब मुरझाए लम्हों का
स्याह से होते किस्सों का
नहीं सहेजना जख्मी यादें
सांसों की कच्ची-पक्की बुग्नी में
काट देना उम्र से वो टुकड़े
जहाँ गढ़ी हो दर्द की नुकीली कीलें
और न निकलने वाले काँटों का गहरा एहसास
की हो जाते हैं कुछ अच्छे दिन भी बरबाद
इन सबका हिसाब रखने में
वैसे जंगली गुलाब की यादों के बारे में
क्या ख्याल है ...
यादें तो यादें हैं, चुनाव करके नहीं आतीं, यदि उनसे मुक्त होना है तो एक साथ ही सबसे नाता तोड़ना होगा वरना दर्द और ख़ुशी में भेद करना उन्हें नहीं आता
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंहो जाते हैं कुछ अच्छे दिन भी बरबाद
जवाब देंहटाएंइन सबका हिसाब रखने में..
कहा तो सही है, पर ये यादें कहां छूटती हैं,कितना भी मन से हटाओ, परछाई की तरह चिपक अपना अहसास दिला ही देती हैं..सुंदर, सराहनीय अभिव्यक्ति ।
बहुत सुंदर हृदयस्पर्शी कृति ।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 03 मार्च 2022 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंकाट देना उम्र से वो टुकड़े
जवाब देंहटाएंजहाँ गढ़ी हो दर्द की नुकीली कीलें
और न निकलने वाले काँटों का गहरा एहसास
.. .. सच गढ़ी नुकीली कीलें और काँटों को जितनी बार याद करता है इंसान उतनी बार मरता है
बहुत खूब!
बहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंअनिता जी की बात से मैं सहमत हूँ.
जवाब देंहटाएंयादे तो यादे होती है जनाब
यादों को दर्द और ख़ुशी में अंतर करना नहीं आता फिर रचना वो लास्ट पंक्ति याद आती है कि जंगली गुलाब की यादों के बारे में क्या ख्याल है?
:D
Welcome to my New post- धरती की नागरिक: श्वेता सिन्हा
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (०४ -०३ -२०२२ ) को
'हिसाब कुछ लम्हों का ...'(चर्चा अंक -४३५९) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
काट देना उम्र से वो टुकड़े
जवाब देंहटाएंजहाँ गढ़ी हो दर्द की नुकीली कीलें
और न निकलने वाले काँटों का गहरा एहसास
मन चाहता तो यही है कि बस खुशियाँ याद आये लेकिन हर खुशी के आगे पीछे चिपकी होती ये ये नुकीली कीलें ...
बहुत सुन्दर...
लाजवाब सृजन।
यादों से छुटकारा पाना इतना आसान भी तो नहीं है। बहुत सुंदर रचना,दिगंबर भाई।
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा अभिव्यक्ति, यादों को सहेजो पर उनसे आज के ऊपर कोई काली छाया न पड़ने देने में ही अक्लमंदी है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन।
लाजवाब
जवाब देंहटाएंकि होजाते हैं कुछ अच्छे दिन बरबाद ..हिसाब रखने में ..वाह कितनी गहरी और सच्ची बात
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना। शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंयादों से मुक्ति पाने के लिए कितने ही तरीके आजमा लो, वे आए बिना नहीं रहती हैं। जंगली गुलाब की हों या कुछ और....
जवाब देंहटाएंबस गहरी खामोशी....
जवाब देंहटाएं