जिन टेढ़े-मेढ़े रस्तों से गुजारते हैं चरवाहे जहाँ की मेढों पे खिलते हैं गहरे लाल रंग के जंगली फूल जहाँ धूप के साथ उतरती है कच्ची सरसों की खुशबू उसी के पास खेतों से आती है चूडियों की खनक और तुम्हारी हँसी की आवाज़ में घुलती पाजेब की धीमी छन-छन रख दिए हैं ताज़ा बोसे उस पगडण्डी के ठीक बीचों बीच जिसके एक कोने पे एक छत है और कुछ टूटी हुई दीवारें मकान हो जाने की इंतज़ार में गुज़र जाते हैं कुछ परिंदे भी उस पगडण्डी की रेत पर छोड़ जाते हैं पन्जों के गहरे निशान बूढ़े किसान की आशा नहीं देखती रेत का समुन्दर और उसके आगे झिलमिलाता पानी का सैलाब वो देखती है रेत के ठीक ऊपर दमकता काला बादल रेत का सीना चीर के आती नमी का इंतज़ार है उसे इंतज़ार तो मुझे भी है कुछ बूँदों का उगे हुए हैं कुछ सूखे झाड़ बरसों से मेरे सूने आँगन में फूल हो जाने की इंतज़ार में ... गुज़र के गए हैं कुछ सैनिक अभी-अभी इस रस्ते से भारी जूतों से धरती का सीना मसलते सुना है आज़ाद करनी है सूखी मिट्टी, भूमि-पुत्रों से लाल पट्टी सरों पे बांधे कर रहे हैं लाल जो सूखी धरती का आनन कुछ नहीं होता है जिनके पास खोने को लुटी हुई इज्ज़त और आँखों से निकलते शोलों के सिवा घास के तिनकों से बने हरे कंगन पहने हाथ मचलते तो जरूर होंगे बन्दूक हो जाने की इंतज़ार में प्रेम तो उन्हें भी होता होगा ... मेरी तरह और प्रेम के फूल पनपने के लिए हवा पानी ज़रूरी तो नहीं #जंगली_गुलाब
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-07-2022) को चर्चा मंच "ग़ज़ल लिखने के सलीके" (चर्चा-अंक 4485) पर भी होगी! -- सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें। -- हार्दिक शुभकामनाओं के साथ। डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी काव्याभिव्यक्ति की शैली बदली है दिगंबर जी, कथ्य नहीं। आपकी रचनाओं में से आपका वही चेहरा झाँकता है जिससे हम पहले से वाक़िफ़ हैं। तारीफ़ क्या करूँ? सूर्य को दीप क्या दिखाना?
बहुत ही सुंदर रूप प्रेम का... किसान का माटी से अथाह प्रेम सैनिकों का ज़िक्र और गहरे से बांधता है सृजन को... उसी में पनपता जंगली गुलाब उसे हवा पानी कुछ भी नहीं चाहिए होता है बस पनपना होता है। बहुत ही सुंदर हृदयस्पर्श सृजन। सादर
कुछ नहीं होता है जिनके पास खोने को लुटी हुई इज्ज़त और आँखों से निकलते शोलों के सिवा बस इंतजार करते हैं सभी जो चाहा वो पाने को बहुत ही सुन्दर .... लाजवाब वाह !!!
इंतज़ार तो मुझे भी है कुछ बूँदों का उगे हुए हैं कुछ सूखे झाड़ बरसों से मेरे सूने आँगन में फूल हो जाने की इंतज़ार में ... गुज़र के गए हैं कुछ सैनिक अभी-अभी इस रस्ते से भारी जूतों से धरती का सीना मसलते सुना है आज़ाद करनी है सूखी मिट्टी, भूमि-पुत्रों से लाल पट्टी सरों पे बांधे कर रहे हैं लाल जो सूखी धरती का आनन कुछ नहीं होता है जिनके पास खोने को लुटी हुई इज्ज़त और आँखों से निकलते शोलों के सिवा बहुत शानदार !!
बहुत सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर ❤️💙🧡🌻
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-07-2022) को चर्चा मंच "ग़ज़ल लिखने के सलीके" (चर्चा-अंक 4485) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
उगे हुए हैं कुछ सूखे झाड़ बरसों से मेरे सूने आँगन में
जवाब देंहटाएंफूल हो जाने की इंतज़ार में ...
मन की कश्मकश को सुंदर शब्दों से नवाजा है ।
जीवन के कितने ही जटिल सवालों से जूझती कविता
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंआपकी काव्याभिव्यक्ति की शैली बदली है दिगंबर जी, कथ्य नहीं। आपकी रचनाओं में से आपका वही चेहरा झाँकता है जिससे हम पहले से वाक़िफ़ हैं। तारीफ़ क्या करूँ? सूर्य को दीप क्या दिखाना?
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर रूप प्रेम का...
जवाब देंहटाएंकिसान का माटी से अथाह प्रेम
सैनिकों का ज़िक्र और गहरे से बांधता है सृजन को...
उसी में पनपता जंगली गुलाब उसे हवा पानी कुछ भी नहीं चाहिए होता है बस पनपना होता है।
बहुत ही सुंदर हृदयस्पर्श सृजन।
सादर
कुछ नहीं होता है जिनके पास खोने को
जवाब देंहटाएंलुटी हुई इज्ज़त और आँखों से निकलते शोलों के सिवा
बस इंतजार करते हैं सभी जो चाहा वो पाने को
बहुत ही सुन्दर ....
लाजवाब
वाह !!!
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्श सृजन बहुत ही खुबसूरत
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंइंतज़ार तो मुझे भी है कुछ बूँदों का
जवाब देंहटाएंउगे हुए हैं कुछ सूखे झाड़ बरसों से मेरे सूने आँगन में
फूल हो जाने की इंतज़ार में ...
गुज़र के गए हैं कुछ सैनिक अभी-अभी इस रस्ते से
भारी जूतों से धरती का सीना मसलते
सुना है आज़ाद करनी है सूखी मिट्टी, भूमि-पुत्रों से
लाल पट्टी सरों पे बांधे कर रहे हैं लाल जो सूखी धरती का आनन
कुछ नहीं होता है जिनके पास खोने को
लुटी हुई इज्ज़त और आँखों से निकलते शोलों के सिवा
बहुत शानदार !!