तुम आओ ...
बहुत चाहा शब्द गढ़ना
चाँदनी के सुर्ख गजरे ... सफ़ेद कागज़ पे उतारना
पर जाने क्यों अल्फाजों का कम्बल ओढ़े
हवा अटकी रही, हवा के
इर्द-गिर्द
पंछी सोते रहे
सूरज आसमान हो गया
ढल गए ख़याल, ढल जाती है दोपहर की धूप जैसे
रात का गहराता साया
खो गया अमावस की काली आग़ोश में
शब्दों ने नहीं खोले अपने मायने
खुरदरी मिटटी में नहीं पनपने पाया सृजन
तुम होती तो उतर आतीं मेरे अलफ़ाज़ बन कर
न होता तो रच देता तुम्हे नज़्म-दर-नज़्म
सुजाग हो जातीं केनवस की आड़ी-तिरछी लक़ीरें
मेरे जंगली गुलाब तुम आओ तो शुरू हो
कायनात का हसीन क़ारोबार ...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (01-10-2022) को "भोली कलियों का कोमल मन मुस्काए" (चर्चा-अंक-4569) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर। क्षमा याचना सहित - "घड़ना' शब्द को "गढ़ना" कीजिए।
जवाब देंहटाएंवाह.बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंकल्पना का मनमोहक इंद्रजाल
जवाब देंहटाएंवाह!! बहुत सुंदर...
जवाब देंहटाएंकायनात का हसीन कारोबार ....
जवाब देंहटाएंबहुत खूब 👌👌👌
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब नासवा जी...
जवाब देंहटाएंवाह बहुत ही सुन्दर रचना ! आपने बहुत ही सुन्दर लिखा है। इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद।रंगोली फोटो
जवाब देंहटाएंसिंपल रंगोली फोटो
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंBahut pasand aaya.
जवाब देंहटाएं