रहेगा हो के जो किसी का नाम होना था ...
न चाहते हुए भी इतना काम होना था.
हवा
में एक बुलबुला तमाम होना था.
जो बन
गया है खुद को भूल के फ़क़त राधे,
उसे तो
यूँ भी एक रोज़ श्याम होना था.
वो खुद
को आब ही समझ रहा था पर उसको,
किसी
हसीन की नज़र का जाम होना था.
पता
नहीं था आदमी को ज़िन्दगी में कभी,
उसे
मशीनों का फिर से ग़ुलाम होना था.
नसीब
खुल के अपना खेल खेलता हो जब,
रुकावटों
के साथ इंतज़ाम होना था.
ये
फ़लसफ़ा है न्याय-तंत्र का समझ लोगे,
जहाँ
पे बात ज़ुल्म की हो राम होना था.
ये दिन
ये रात वक़्त के अधीन होते हैं,
सहर को
दो-पहर तो फिर से शाम होना था.
मिटा
सको तो कर के देख लो हर इक कोशिश,
रहेगा
हो के जो किसी का नाम होना था.
लाजवाब
जवाब देंहटाएंये दिन ये रात वक़्त के अधीन होते हैं,
जवाब देंहटाएंसहर को दो-पहर तो फिर से शाम होना था.
वाह!! जीवन के अनेक पहलुओं पर रोशनी डालता हुआ हरेक शेर अपने आप में मुकम्मल है,
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार (16-3-23} को "पसरी धवल उजास" (चर्चा अंक 4647) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत सुंदर गज़ल सर।
जवाब देंहटाएंसादर।
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १७ मार्च २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
पता नहीं था आदमी को ज़िन्दगी में कभी,
जवाब देंहटाएंउसे मशीनों का फिर से ग़ुलाम होना था.
वाह!!!
क्या बात...
बहुत ही लाजवाब
👌👌🙏🙏
बहुत लाजबाब प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब, सर,
जवाब देंहटाएंहर अश्अरार लाजवाब।
बहुत शानदार ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंबेहतरीन।
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