यादों से तेरी यूँ हाथ छुड़ाता हूँ.
एड़ी से इक सिगरेट रोज़ बुझाता हूँ.
मुमकिन है मेहमान ही बन कर आ जाएँ,
रोटी का इक पेड़ा रोज़ गिराता हूँ.
छत पर उनको ले जाता हूँ शाम ढले,
ऐसे भी मैं तारे रात सजाता हूँ.
बातें मीठी तीखी अदरक जैसी है,
चुस्की-चुस्की जो मैं चाय पिलाता हूँ.
इक दिन इठला कर तितली भी आएगी,
आँगन में इक ऐसा पेड़ उगाता हूँ.
आदम-कद जो ले आए थे तुम उस-दिन,
उस टैडी के अब-तक नाज़ उठाता हूँ.
पीली सी वो चुन्नी भी खूँटी पर है,
जिसके साथ लिपट कर रात बिताता हूँ.
उनके इक परफ़्यूम की शीशी अब तक है,
आते जाते उसको रोज़ लगता हूँ.
वाह
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 17 मई 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
वाह!दिगंबर जी ,लाजवाब ! उनकी एक परफ्यूम की शीशी अब तक है ........वाह !
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा जी ।
जवाब देंहटाएंआप ने लिखा.....
जवाब देंहटाएंहमने पड़ा.....
इसे सभी पड़े......
इस लिये आप की रचना......
दिनांक 21/05/2023 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की जा रही है.....
इस प्रस्तुति में.....
आप भी सादर आमंत्रित है......
वाह
जवाब देंहटाएंबातें मीठी तीखी अदरक जैसी है,
जवाब देंहटाएंचुस्की-चुस्की जो मैं चाय पिलाता हूँ.
वाह ! विश्व चाय दिवस पर अदरक वाली चाय पेश करने के लिए धन्यवाद ! और परफ्यूम क्या महक रहा है !