आज की ग़ज़ल आप गर्भनाल के ताज़ा जुलाई २०२३ के अंक में भी पढ़ सकते हैं … पत्रिका का मुखपृष्ठ भी मेरे कैमरे द्वारा लिया गया है …
पर्दे की ओटक में सादा अक़्स छुपा होगा. खिड़की-खिड़की, घन-घन बादल इश्क़ लिखा होगा.
तितली बारिश, इंद्र-धनुष ये सब उल्फ़त के मानी,
चिड़ियों को ज़र्रे-ज़र्रे में इश्क़ मिला होगा.
सर-सर, झर-झर खुली हवा में चटर-पटर कुछ बातें,
पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा, इश्क़ उगा होगा.
ब्रह्म काल में केसर ओढ़े किरणों ने पट खोले,
धूप खिली तो सकल-जगत में इश्क़ जगा होगा.
जल-थल दूर गगन तक महकी सौंधी-सौंधी ख़ुशबू,
धूल उड़ी तो सतरंगी सा इश्क़ उड़ा होगा.
गहराई से उठती-गिरती साहिल तक आ जाएँ,
कल-कल, छल-छल लहरों-लहरों इश्क़ दिखा होगा.
डूबोगे जब ख़ुद पल-पल-तब-तब कण-कण जानोगे,
दीवानों की क़िस्मत में बस इश्क़ छपा होगा.
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आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 02 जूलाई 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना
जवाब देंहटाएंवाह! लाली देखन मैं गई, जीत देखूँ तित लाल, यही भाव पूरी ग़ज़ल में फैला हुआ है, ब्रह्म काल सही शब्द है सम्भवत:
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब !! सम्पूर्ण सृष्टि का सार तत्व ढाई अक्षर में समाया है । नायाब कृति ।
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