हवा कुछ गीत ऐसे गा रही है.
किसी की याद संग-संग आ रही है.
अभी छेड़ो न तितली को, सुनो जी,
पहाड़ा इश्क़ का समझा रही है.
पहनती है नहीं, ये तो बता दे,
अंगूठी कब मेरी लौटा रही है.
लचकती सी जो गुज़री है यहाँ से,
लड़ी कचनार की बल खा रही है.
नहीं है इश्क़ तो क्यों लाल झुमका,
मेरे स्वेटर में यूँ उलझा रही है.
तेरी ये गंध जैसे इत्र बन कर,
सुलगते कश में उतरी जा रही है.
ग़ज़ल पूरी मैं कब की कर भी लेता,
ये काली लट तेरी उलझा रही है.
सुन्दर
जवाब देंहटाएंसुंदर गज़ल सर।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १४ जुलाई २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
पहनती है नहीं, ये तो बता दे,
जवाब देंहटाएंअंगूठी कब मेरी लौटा रही है.
वाह!!!
ग़ज़ल पूरी मैं कब की कर भी लेता,
ये काली लट तेरी उलझा रही है.
वाह वाह...
लाजवाब👌👌
लट उलझी रहे और आओ ग़ज़ल कहते रहें ।बेहतरीन ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंवाह!दिगंबर जी ,क्या बात है ! बहुत खूब..
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंनहीं है इश्क़ तो क्यों लाल झुमका,
मेरे स्वेटर में यूँ उलझा रही है.
वाह! अति सुन्दर गजल।
बेहतरीन ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंये अंगूठी वाला मामला पेचीदा है जनाब ;)
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंअभी छेड़ो न तितली को, सुनो जी,
जवाब देंहटाएंपहाड़ा इश्क़ का समझा रही है.
बहुत सुन्दर। .
आपकी हर गजल लाजवाब होती हैं