कहीं से चल के कहीं बार-बार बैठा हो.
मेरी तलाश में हिम्मत न हार बैठा हो.
नमक छिड़कते हैं कुछ लोग घाव पर अक्सर,
कहीं वो खुद से न पट्टी उतार बैठा हो.
यकीं नहीं तो यकीनन भरम रहेगा उसे,
भले ही पास में परवर-दिगार बैठा हो.
फ़क़ीर दिल से मुकद्दर की भेंट देता है,
गरीब हो के कहीं माल-दार बैठा हो.
पराई आग में तपती है ज़िन्दगी ऐसे,
बदन में जैसे किसी का बुखार बैठा हो.
लिबास ज़िस्म पे रहता है काँच का हर-दम,
कहीं किसी को न पत्थर से मार बैठा हो.
उलझ के एक ही लम्हे में रह गया इतना,
तमाम उम्र ही जैसे गुज़ार बैठा हो.
लाजवाब
जवाब देंहटाएंयकीं नहीं तो यकीनन भरम रहेगा उसे,
जवाब देंहटाएंभले ही पास में परवर-दिगार बैठा हो.
बहुत सुंदर अश्यार, बेहतरीन ग़ज़ल!
हमेशा की तरह बहुत ही सुखद एहसास समेटे ग़ज़ल...👌👌👌
जवाब देंहटाएंशानदार गज़ल सर।
जवाब देंहटाएंसारे शेर एक से बढ़कर एक हैं।
सादर
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २१ जुलाई २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंयकीं नहीं है तो यकीनन भरम रहेगा ...वाह
जवाब देंहटाएंफकीर होके कहीं मालदार ...क्या कहने . हर शेर कुछ खास कहता है .