विस्तार प्रेम का हूँ प्रेम पाश नहीं हूँ.
गंतव्य मुझको मान लो तलाश नहीं हूँ.
तुम ओढ़ कर ये धूप हमको मिलने न आना,
इक रात सुरमई सी हूँ प्रकाश नहीं हूँ.
विस्मृत न कर सकोगे आप प्रेम के लम्हे,
काँटा गुलाब का हूँ मैं पलाश नहीं हूँ.
कुछ पल हमारे साथ ठीक-ठाक हैं लेकिन,
मैं भाग्य को बदल दूँ ऐसी ताश नहीं हूँ.
शिव सा अनंत विष का कंठ पान किया है,
निर्माण लक्ष्य है मेरा विनाश नहीं हूँ.
माना के स्वीकृति मिली न प्रेम की अब तक,
विचलित ज़रूर हूँ मगर निराश नहीं हूँ.
लाजवाब
जवाब देंहटाएंवाह.. बहुत अच्छी, लाज़वाब गज़ल सर।
जवाब देंहटाएंहर एक शेर बेहतरीन है।
प्रणाम
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १० अक्टूबर२०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
लाजवाब, उम्दा ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंसुंदर,हृदय स्पर्शी रचना
जवाब देंहटाएंवाह ! विस्तार में ही तो आनंद है, सृजन है
जवाब देंहटाएंविस्मृत न कर सकोगे आप प्रेम के लम्हे,
जवाब देंहटाएंकाँटा गुलाब का हूँ मैं पलाश नहीं हूँ.... एक हृदयस्पर्शी रचना ...वाह
शिव सा अनंत विष का कंठ पान किया है,
जवाब देंहटाएंनिर्माण लक्ष्य है मेरा विनाश नहीं हूँ.
वाह!!!
माना के स्वीकृति मिली न प्रेम की अब तक,
विचलित ज़रूर हूँ मगर निराश नहीं हूँ.
क्या बात....
बहुत ही लाजवाब एवं उत्कृष्ट गजल ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंवाह💙❤️
जवाब देंहटाएंमाना के स्वीकृति मिली न प्रेम की अब तक,
जवाब देंहटाएंविचलित ज़रूर हूँ मगर निराश नहीं हूँ.
लाज़वाब रचना प्रणाम है गुरुदेव
शानदार ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंबहुत खुब ! गज़ल !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंहर पंक्तियां लाजवाब।
माना के स्वीकृति मिली न प्रेम की अब तक,
जवाब देंहटाएंविचलित ज़रूर हूँ मगर निराश नहीं हूँ.
बहुत ख़ूब !! बेहतरीन एवं लाजवाब अशआरों से सजी नायाब कृति ।