यादों के सैलाब के साथ
दौड़ गया था जो ठीक उस पल, मिले थे जब पहली बार
वो नहीं छोड़ना चाहता, तेरे मेरे प्रेम का कोई भी राज़दार लम्हा
लौटने लगी है बारिश
सिमिट गयी थी जो बूँद बन कर उस पल
गुज़र जाती है ख़ामोश सरसराहट भी
अपने होने का एहसास दिला कर
तेज़ आँधियों के बीच रेत पर उभर कर मिटते हैं
कुछ क़दमों के निशान ...
लौटने लगे हैं फूल, पत्ते भी उगने लगे पेड़ों पर
काट कर बादलों का आवरण, बे-मौसम खिलने लगी है धूप
दूर कहीं मुस्कुराती है ख़ामोशी
और खिलखिलाता है जंगली गुलाब का आवारा पेड़
आज भी उस लम्हे पर, वक़्त की नादानी पर
प्रेम को कब कहाँ किसने समझा है ...
#जंगली_गुलाब
लौटने लगी है बारिश
जवाब देंहटाएंसिमट गयी थी जो बूँद बन कर उस पल
गुज़र जाती है ख़ामोश सरसराहट भी
अपने होने का एहसास दिला कर..,
बहुत ख़ूब !! कमाल का सृजन ।
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 01 फरवरी 2024 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
वाह
जवाब देंहटाएंआज भी उस लम्हे पर, वक़्त की नादानी पर
जवाब देंहटाएंप्रेम को कब कहाँ किसने समझा है ...
हर प्रेम की अपनी अनोखी कहानी है ...उम्र भर प्रेम को उसी रूप में जीना भी एक कला ही तो है...
हर कोई कहाँ जानता है इसे....
बहुत ही लाजवाब।
बेहतरीन प्रस्तुति !!
जवाब देंहटाएंऐसा ही होता है, यादों का सैलाब जब आता है , वक्त पीछे लौटा ले जाता है एक खूबसूरत मंजर पे !
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