कोमा कहाँ लगेगा कहाँ पर विराम है.
किसको पता प्रथम है के अंतिम प्रणाम है.
घर था मेरा तो नाम भी उस पर मेरा ही था,
ईंटों की धड़कनों में मगर और नाम है.
कोशिश करोगे तो भी न फिर ढूँढ पाओगे,
अक्सर वहीं मिलूँगा जो मेरा मुक़ाम है.
होता है ज़िन्दगी में कई बार इस क़दर,
दिन उग रहा है पर न पता किसकी शाम है.
घर यूँ जलाया उसने मेरे सामने लगा,
अब हो न हो ये कोई पड़ोसी का काम है.
यादों में क़ैद कर के रखा है तमाम उम्र,
सच-सच कहो ये आपका क्या इंतक़ाम है.
घायल न कर दे मय की तलब इस क़दर मुझे,
होठों के आस-पास ये इक टूटा जाम है.
बेहतरीन 👌👌👍👍🙏
जवाब देंहटाएंमै कया जवाब दू
जवाब देंहटाएंये तो ला जवाब है
वाह बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंवैसे तो पूरी ग़ज़ल ही बेमिसाल है, पर प्रथम और अंतिम शेर लाजवाब है
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंघायल न कर दे मय की तलब इस क़दर मुझे,
जवाब देंहटाएंहोठों के आस-पास ये इक टूटा जाम है.
लाजवाब
बहुत ही बेहतरीन रचना!!
जवाब देंहटाएं