स्वप्न मेरे: होठों के आस पास ये इक टूटा जाम है …

शुक्रवार, 28 मार्च 2025

होठों के आस पास ये इक टूटा जाम है …

कोमा कहाँ लगेगा कहाँ पर विराम है.
किसको पता प्रथम है के अंतिम प्रणाम है.

घर था मेरा तो नाम भी उस पर मेरा ही था,
ईंटों की धड़कनों में मगर और नाम है.

कोशिश करोगे तो भी न फिर ढूँढ पाओगे,
अक्सर वहीं मिलूँगा जो मेरा मुक़ाम है.

होता है ज़िन्दगी में कई बार इस क़दर,
दिन उग रहा है पर न पता किसकी शाम है.

घर यूँ जलाया उसने मेरे सामने लगा,
अब हो न हो ये कोई पड़ोसी का काम है.

यादों में क़ैद कर के रखा है तमाम उम्र,
सच-सच कहो ये आपका क्या इंतक़ाम है.

घायल न कर दे मय की तलब इस क़दर मुझे,
होठों के आस-पास ये इक टूटा जाम है.

8 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन 👌👌👍👍🙏

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  2. मै कया जवाब दू
    ये तो ला जवाब है

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  3. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में रविवार 30 मार्च 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

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  4. वैसे तो पूरी ग़ज़ल ही बेमिसाल है, पर प्रथम और अंतिम शेर लाजवाब है

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  5. घायल न कर दे मय की तलब इस क़दर मुझे,
    होठों के आस-पास ये इक टूटा जाम है.

    लाजवाब

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